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( २३२ ) प्रयास में बुद्ध-धर्म में वेदान्त की झाँकी देखी है । यह धारणा इस कारण भ्रान्ति-पूर्ण है कि ऋषि ने बौद्ध धर्म के ग्रन्थों से 'अलात' उपमा को उद्धृत किया है । वास्तव में प्राचार्य का उद्देश्य इस उपमा को वर्णन करने पर पूरा हो जाता है । किसी प्राकृतिक दृश्य का धर्म-विशेष के ग्रन्थ में समावेश करना और उसे उसी का अंग मानना किसी मत का जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं है । यदि किसी पुस्तक में चन्द्रमा से किसी की उपमा दी गयी है तो यह मान बैठना कि उसका और कोई उल्लेख नहीं कर सकता अनाकार चेष्ठा होगी।
श्री गौड़पाद द्वारा इस उपमा का उद्धरण करना न्याय-संगत है क्योंकि संभव है श्री गौड़पाद तथा बौद्ध ग्रन्थकारों ने यह उपमा किसी अन्य सूत्र से प्राप्त की हो क्योंकि मैत्रेयी उपनिषद् के चतुर्थ अध्याय के चौबीसवें मंत्र में अलात-वृत्त की उपमा दी गयी है । वहाँ ये शब्द लिखे हुए हैं-"वह सूर्य के वर्ण वाले ब्राह्मण को देखता है जो वृत्त में घूमने वाली ज्योति के समान देदीप्यमान है ।"
पालोचक तो यह भी कहते हैं कि इस अध्याय में जिस ऐन्द्रिक हाथी' की उपमा दी गयी है उसमें ऋषि की कोई मौलिकता नहीं है अर्थात् उसे भी उद्धृत किया गया है । यह आलोचक इस बात को भूल जाते हैं कि संभवतः यह 'भास' के नाटक 'स्वप्नवासवदत्ता' के मुख्य पात्र राजा उदयन की जीवनी से ली गयी हो।
जिस तरह प्राचीन धर्म-प्रन्थों की व्याख्या करते हुए हम माजकल साधारण उपलब्ध भाषा (विज्ञान एवं ईसाई-मत के शब्दों) का उपयोग करते है उसी तरह श्री गौड़पाद ने, जिन्हें अपनी पुस्तक को प्रकाशित करने तथा विक्रय की कोई इच्छा नहीं थी बल्कि जो अपने समय के शिक्षित-समुदाय तक इस विशिष्ट शान को पहुंचाना चाहते थे, बड़ी उदारता से उस युग के प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया । किसी युग के सन्त-महात्मा अपनी पीढ़ी के लोगों को उन्हीं की भाषा में महत्त्वपूर्ण विचार बताया करते हैं।
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