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( २३१ ) बहुत प्राचीन हस्तलेखों की पुष्पिकानों (Colophons) में इस बात का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है ।
इस अध्याय में श्री गौड़पाद ने जान-बूझ कर पहले तीन अध्यायों की बहुत सी युक्तियों को दोहराया है । इस अध्याय के मुख्य विषय ये हैं :-- (क) तर्कपूर्ण विवाद (Dialecties) के द्वारा कारण की निर्योध्यता
(Unintelligibility) दिखाना । (ख) 'अलात' को हिलाने से जो मिथ्या प्राकृतियाँ बनती हैं उनकी
संसार के विविध माया-पूर्ण पदार्थों से तुलना करना । (ग) इस बात को सिद्ध करने के लिए कि परमात्म-तत्त्व अद्वैत, मनादि
तथा सनातन है, बौद्ध धर्म की युक्तियों का उदारता से प्रयोग
करना। इस अध्याय में श्री गौड़पाद न बहुत सी बौद्ध परिभाषाओं का उपयोग किया है । यह अंधाधुध रीति से नहीं किया गया है बल्कि उन विचारों और रहस्यों को प्रकट करने के लिए किया गया है जिन्हें बौद्ध-धर्म के ग्रन्थों से सुगमता से उढ़त किया जा सकता है।
इस अध्याय पर विशेषतः उन व्यक्तियों द्वारा टीका-टिप्पणी की जाती है जो यह सिद्ध करना चाहते हैं कि श्री गौड़पाद हमें बुद्ध-धर्म के आदर्शों को पालन करने का परामर्श देते हैं। उनके विचार में इस अध्याय में उपनिषदों के उद्धरण नहीं दिये गये हैं। प्रोफ़ेसर वी० मट्टाचार्य कहते हैं कि हमारे ग्रन्थ-लेखक ने अपनी अन्तिम पुस्तक 'अलात-शान्ति' में किसी उपनिषद् का उल्लेख नहीं किया और न ही कोई ऐसा हवाला दिया है । यह आलोचना असंगत है क्योंकि ऐसी बात कहना एक दार्शनिक असत्य है । यहाँ कई ऐसी पंक्तियाँ हैं जो उपनिषदों से परिचित विद्यार्थी को वेदों के सनातन-सत्य का स्मरण दिलाती है । डा० बेल्वाल्कर ने चौथे अध्याय के मंत्र ७८, ८०, ८५ और ६२ में उपनिषदों के उद्धरण की ओर संकेत किया है।
श्री गौड़पाद के तीव्र पालोचक इस अध्याय के शीर्षक से ही यह परिणाम निकालते हैं कि ऋषि ने बुद्ध-धर्म के आदर्शों की स्थापना करन के
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