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( १९८ ) न रहे तो फिर उनका एकीकरण-विन्दु किस प्रकार हो सकता है ? रिक्स मन को अमनत्व कहा जाता है । इस प्रकार की चेतना-स्थिति में, जब चेतना को अपनी शक्ति को ही अनुभूति होती है, मन का रहना असम्भव हो जाता है।
अकल्पकमजं ज्ञानं ज्ञेयाभिन्नं प्रचक्षते ।
ब्रह्मज्ञेयमजं मित्यमजेनाजं विबुध्यते ॥३३॥ प्रजात एवं कल्पना में न आने वाला ज्ञान सदा ज्ञेय-पदार्थों से पृथक् रहता है । तब अनादि ब्रह्म ही जानने योग्य (होता) है। 'अज' को अज ही जान सकता है।
प्रस्तुत मंत्र में श्री गौड़पाद ने परम-नत्त्व को अपनी भाषा में प्रायः सीमाबद्ध कर दिया है, मानो ऋषि न असंभव को संभव कर दिया हो। अनुभव के क्षेत्र, न कि व्यक्त संसार, से सामान्यत: संबन्ध रखने वाले विचारों को यहाँ प्रकट किया गया है ।
विशुद्ध चेतना को सम्पूर्ण ज्ञान कहना एक ऐसी परिभाषा है जिसकी समता शास्त्र-साहित्य में और कहीं नहीं मिलती। इससे पहले इस विषय को इतनी दृढ़ता से और कहीं प्रकट नहीं किया गया है ।
साधारणतः सर्व-व्यापक चेतना को निर्गुण कहा जाता है और यह दृष्टपदार्थों की परिधि में नहीं पा सकता । 'श्रुति' द्वारा भी परम-तत्त्व की निश्चित रूप से परिभाषा नहीं की जाती; किन्तु श्री बद्रीनाथ के इस महान् प्राचार्य (श्री गौड़पाद) ने परम आत्मानुभूति के कारण अव्यक्त को व्यक्त कर दिया है।
दार्शनिक भाषा में 'ज्ञान' का वह अर्थ नहीं जो हमारे व्यावहारिक जीवन में समझा जाता है । प्रत्यक्ष संसार में ज्ञान का अभिप्राय पदार्थ-ज्ञान है अर्थात् हम दृष्ट-वस्तुओं को देखने, सुनने, चखने आदि से जानते हैं। इस तरह हम एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरो वस्तु का ज्ञान प्राप्त करते रहते हैं । यहाँ ऋषि ने सर्व-व्यापक परम-ज्ञान की व्याख्या करने का प्रयास किया है।
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