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( १९६ ) के अपने मनके भिन्न रूप होते हैं । निद्रा से जगने पर वह समझ लेता है कि उसके एकमात्र मन ने अनेक रूपों में विभक्त होकर मिथ्या स्वप्न-जगत की सृष्टि की। ठीक ऐसे ही हम यह अनुभव करेंगे कि जाग्रतावस्था का दृष्टसंसार हमें इस कारण दिखायी पड़ता है कि हमारा विक्षिप्त मन अज्ञानवश भीतरी संघर्ष से अनेक रूपों में बँट जाता है। प्रत्यक्ष संसार के स्वप्न को देख चुकने पर ही हम विशुद्ध ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश कर पायेंगे और तभी हमें इस (संसार) की असारता का पता चलेगा।
मनो दश्यमिदं द्वैतं यत्किचित्सराचरम् ।
मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नधोपलभ्यते ॥३१॥ दृष्ट-संसार, जो चर अथवा अचर दिखायी देता है, कवल-मात्र मन की अनुभूति है अर्थात् मन की ही प्रतिच्छाया है क्योंकि मन को लांघ लेने पर इस नानात्व का अनुभव नहीं होता ।
इस मंत्र में श्री गौड़पाद ने प्रत्यक्ष पदार्थमय-संसार के सम्बन्ध में हमें तीसरी व्याख्या देने का अनुग्रह किया है। वह कहते हैं कि यह नानात्व हमारे मन का आभासमात्र है। ऋषि ने इसमें प्रत्यक्ष संसार के चर तथा अचर दोनों का समावेश किया है । 'चर' में संसार के सभी प्राणी और 'अचर' में जड़ भतपदार्थ पाते हैं। ___महान् प्राचार्य ने किस युक्ति के आधार पर दृष्ट-संसार को मन ही की अनुभूति कहा है ? ऋषि कहते हैं कि मन के क्रियमाण न होने पर संसार के नानात्व का हमें अनुभव नहीं होता । अपने दैनिक अनुभवों के फल-स्वरूप हम कह सकते हैं कि जब हम किसी समस्या को हल कर रहे होते हैं अथवा जिस समय हमारा मन 'कहीं गया होता है तो हमें अपने सामने हो रही घटनामों का ज्ञान नहीं रहता । इस प्रकार के अनुभव से हम कह सकते हैं कि-"जहाँ मन नहीं, वहाँ संसार नहीं।"
मन के न होने की अवस्था को 'अमनीभाव' कहा जाता है। यह शब्द इतना सुन्दर एवं भाव-पूर्ण है कि इसके लिए किसी अन्य उपयुक्त शब्द क प्रयोग करना असम्भव ही है । (=न होना; मन ==मन का अर्थात
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