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( २०५ )
हम सर्वशक्तिमान् परमात्मा के बिना और किसी की अनुभूति नहीं होती।
अजमनिद्रमस्वप्नमनामकमरूपकम् ।
सकृद्विभातं सर्वशं नोपचारः कथंचन ॥३६॥ ब्रह्म अजात, निद्रा एवं स्वप्न-रहित, नाम-रूप के बिना और सर्वदा जाज्वल्यमान तथा सर्वज्ञ है । (ब्रह्म की उपासना के लिए किसी प्रकार का अनुष्ठान करना व्यर्थ है ।
हमारे परिमित शब्द किसी प्रकार अपरिमित 'ब्रह्म' का लक्षण नहीं बता सकते । परमात्म-तत्त्व अविनाशी है; अतः सीमित शब्दों द्वारा इसकी परिभाषा करना असंभव है । इतना होने पर भी गत मंत्र में बताया गया था कि मन के निश्चल हो जाने पर आत्मा का अनुभव होता है । प्रस्तुत मंत्र में प्रात्मा के गुण-स्वभाव की ओर संकेत किया गया है ।
शास्त्रों के सनातन-तत्त्व को संकेत-मात्र से समझाया जाता है न कि परिभाषा द्वारा । यहाँ हमें एक ऐसा अनुपम उदाहरण दिया गया है जिससे वास्तविक-तत्त्व को बड़ी कुशलता से बताया गया है । जो व्यक्ति ऋषि के स्तर तक उठ कर उनके विचार समझने में समर्थ हो सकें उन्हें प्रात्मानुभूति के विषय में पर्याप्त ज्ञान की निस्सन्देह प्राप्ति होगी।
'अजम्-जन्म-रहित । इस शब्द के विषय में पहले बताया जा चुका है कि आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् इससे किसी का जन्म नहीं होता । इससे हम यह समझते हैं कि प्रात्मा परिवर्तन-रहित है । यह सदा एक समान रहता है ।
__ 'अनिद्र'-निद्रा-रहित । यहाँ निद्रा का शाब्दिक अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए । बहुत से पण्डित ऐसा ही करते हैं जिससे साधारण हिन्दू-समाज में भ्रान्ति-पूर्ण धारणाएँ होने लगी हैं । अब लोग यह मानने लगे हैं कि सिद्ध पुरुष न विश्राम करता है और न ही निद्रा-ग्रस्त होता है । यहाँ इस शब्द का उपयोग इस दृष्टि से नहीं किया गया है । जहाँ तक शरीर का सम्बन्ध है, आराम करना एक स्वाभाविक क्रिया है क्योंकि विश्राम से स्फूति प्राती है ।
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