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( २९५ ) संसार के अनुभव के पराङ्मुख होना सुगम है किन्तु इस सूक्ष्म उल्लास से मुक्त होना एक विषम समस्या है। ___. हमारे दैनिक अनुभव हमें बताते हैं कि संसार के पदार्थों से प्राप्त होने वाला हर्ष विषमय शोक से मिश्रित रहता है । हमें अपने भीतर जिस मानसिक शान्ति का अनुभव होता है वह कहीं अधिक पूर्णता लिये होती है; अतः यदि हम एक बार समाधिस्थ हो कर इस मनमोहक मस्ती की अनुभूति कर लें तो हम इसके बिना एक क्षण भी न रह सकेंगे और बाद में ऊँचे उठ कर 'प्रात्मा' की अनुभूति करने के योग्य होंगे । इस कारण हमें इस दिशा में यह कह कर सजग किया गया है कि ध्यान-मग्न होने के समय हमें इस 'सुख' में ही नहीं उलझ रहना चाहिए। उस अतीत सुख को अनुभव करते समय भी हममें इतना मानसिक सन्तुलन रहना चाहिए कि हम उससे अलग रह कर उसे प्रकाशमान करने वाले ज्योति-स्रोत की अनुभूति कर सकें। द्वैत-क्षेत्र के सभी अनुभवों का परित्याग करने पर ही हम एकमात्र एवं अनादि शक्ति को प्राप्त कर सकेंगे।
जब हमारा मन इस अव्यक्त एवं प्रशान्त प्रात्म-सत्ता को प्राप्त कर ल तो इसे इधर-उधर न भटकने दिया जाए और यदि यह कभी स्वाभाविक संशय
आदि का शिकार बनने लगे तो हमें इसे तुरन्त उस अव्यवस्थित दशा से निकाल कर 'विशद्ध-चेतना' से सम-केन्द्रित कर देना चाहिए । इस प्रयास में सफल होने के लिए ईश्वर कृपा अथवा गुरु-कृपा ही सहायक नहीं होगी बल्कि हमें स्वयं प्रयत्नशील भी होना पड़ेगा।
यदा न लीयते चित्तं न च विक्षिप्यते पुनः ।
प्रनिङ्गानमनाभासं निष्पन्नं ब्रह्मतत्तदा ॥४६॥ 'लय' तथा विक्षेप से मुक्त अर्थात् शान्त एवं विचारों से रिक्त होने पर यह (मन) 'ब्रह्म' का स्वरूप हो जाता है।
जब हमें 'भूत' की प्राकृति दृष्टिगोचर नहीं होती और न ही हम इस सम्बन्ध में किसी तरह भयभीत होते हैं उस पावन क्षण म ही हम खम्भ के
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