________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
। २२३ ) स्थिर बनाये रखना चाहिए ।
जब साधक अपने मन का 'लय' अवस्था से उद्बोधन कर लेता मोर साथ ही अपने मार्ग पर विवेक-बुद्धि से मारूढ़ रहता है तब ब्रह्म-विद्या के इस मात्र में सहसा एक उज्ज्वल भावना का प्रादुर्भाव होता है जिससे वह यह परिणाम निकाल बैठता है कि अब उसका मन वशीभूत हो गया है और वह 'परिपूर्णता' की अोर बढ़ रहा है । ऐसे अदीक्षित छात्र को इस प्रकार के मनोहारो विचारों से सतर्क रखने के उद्देश्य से श्री गौड़पाद ने बड़ी दयालुता से यह असाधारण चेतावनी दी है ।
भगवान् कहते हैं कि मन पर इस प्रकार विजय प्राप्त कर लेने पर भी साधक को यह समझ लेना चाहिए कि कुछ समय तक नियंत्रण में रहता प्रतीत होने वाला हमारा विकसित मन प्रबल एवं अवचेतन वासनामों से भरा रहता है । ऐसे अवसरों पर असंख्य जन्मों से चली माने वाली पाशनिक प्रवृत्तियाँ, जो हमारे मन के एक क्षेत्र में निश्चेष्ठ पड़ी रहती हैं, किसी क्षण फूट निकलें और हमारे विजय-स्वप्न को भंग कर दें । इस चेतावनी से इस दिशा में बड़ी सहायता मिलती है जिससे अध्यात्म-पथ पर चलने वाले व्यक्ति किसी निराशा का सामना नहीं कर सकते ।।
ये पाशविक प्रवृत्तियाँ, जो हमारे मन में निश्चेष्ठ पड़ी रहती हैं। हमारे ध्यान की विवेकाग्नि में जल कर शुष्क हो जाने से पहले एक बार अवश्य उभरती हैं । इन्हें हम मन का 'काषाय' कहते हैं।
जब कोई साधक इस तरह 'विक्षेप' और 'काषाय' पर विजय पा लेता है तब वह वास्तविकता के तोरण-द्वार पर पहुँच कर खटखटाने लगता है । ईसा महान ने इसी लिए यह सन्देश दिया है-"(स्वर्ग के) द्वार को खटखटाग्रो और तुम भीतर प्रवेश पा लोगे ।" जिस क्षण आप इस प्रकार द्वार' को खटखटा रहे हों अपने मन के सन्तुलन और धैर्य को हाथ से न जाने दें जब तक कि वह द्वार खुल न जाए । इस विचार को इन शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है कि जिस समय मन सन्तुलनावस्था को प्राप्त कर लेता है तब इसे फिर चलायमान न होने दें।
For Private and Personal Use Only