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( २२४ )
इस ध्यानावस्था में हमारा मन न तो सोया रहता है और न ही विक्षिप्त होता है । जब यह 'मन' निस्तब्ध एवं गतिमान् रिक्ति का असाधारण अनुभव प्राप्त कर रहा हो तब इसे किसी प्रकार डिगने देना आत्मा के प्रति महानतम पाप करना है ।
नाssस्वादयेत्सुखं तत्र निःसंग प्रज्ञया भवेत् । निश्चल निश्चरचित्तमेकीकुर्यात्प्रयत्नतः ॥ ४५ ॥ समाधि की अवस्था में अनुभव में आने वाले सुख के उपभोग से मन को बचा कर रखना चाहिए । नियमित रूप से विवेक द्वारा इस ( मन ) को ऐसे सुख में लिप्त होने से बचाना चाहिए । यदि स्थिरता प्राप्त करने के बाद हमारा मन कभी बाह्य पदार्थों की ओर निकल पड़े तो यत्न द्वारा इसका श्रात्मा से फिर एकीकरण करना चाहिए ।
जैसा पिछले दो मंत्रों में कहा जा चुका है, जब साधक अपने मन के विक्षेप अथवा अवचेतना में पायी जाने वाली वासनाओं तथा तन्द्रा से सम्बन्धित बाधाओं का अतिक्रमण कर लेता है तब यह समाधि की अवस्था को अनुभव - करता है जो इसे बहुत प्रानन्द देती है । वास्तव में यह अवस्था अतीत सुख का आस्वादन कराती है । यहाँ साधक को चेतावनी देते हुए श्री गौड़पाद कहते हैं कि वह इस आत्म-प्रवंचना का शिकार न हो जाय कि उसे परम-'
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सुख का अनुभव हो रहा है । वस्तुतः यह अनुभव कृत्रिमता लिये हुए है यद्यपि वास्तविक प्रतीत होता है ।
सर्वज्ञ तत्त्व (आत्मा) को हम इस प्रकार अनुभव नहीं करते जिस तरह प्रत्यक्ष संसार को । वेदान्त-साधन से हम जिस मानसिक सन्तुलन की अनुभूति करते हैं वह शान्त एवं शक्ति सम्पन्न होने पर भी आत्मानुभव की द्योतक नहीं होती । यदि इस सुख पर विचार किया जाए तो पता चलेगा कि स्वतः यह अनुभव संसार के अनुभवों की अपेक्षा अधिक शान्तिप्रद है । इसलिए इस उल्लास का अनुभव एवं उपभोग करना श्रेयस्कर नहीं क्योंकि स्थूल
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