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( १९. ) लेते हैं, दो शब्दों का प्रयोग किया गया है जो 'तत्' तथा 'तदा सर्वनाम है । 'तत्' का अर्थ है 'वह' और 'तदा' का 'तब' । 'तत्' उस सर्व-व्यापक चेतना की प्रोर संकेत करता है जिसका उपनिषदों में वर्णन किया गया है और जिसे केवल शास्त्र के पठन में ही लगा रहने वाला सावक पहले-पहल अपने से पृथक् एवं दूरस्थ सत्ता मानता है । इसे ही तत् अर्थात् 'वह' कह कर समझाया जाता है । इससे यह पता चलता है कि प्राचार्य द्वारा यह बताया गया यह 'सत्य', जिसे अपने से पृथक 'वह' शब्द द्वारा समझा गया था, अन्त म हमारे भीतर ही अनुभव में प्राता है क्योंकि नियम-पूर्वक अभ्यास करते रहने पर मन अपन आप इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।
स्वस्थं शान्तं सनिर्वाणमकथ्यं सुखमुत्तमम् ।
अजमजेन ज्ञेयेन सर्वज्ञं परिचक्षते ॥४७॥ सर्वोत्तम का मूलाधार आत्मा को अनुभूति है । यह शान्ति, जो शाश्वत एवं अवर्णनीय है, मोक्ष के अनुरूप है । इसे सर्वज्ञ 'ब्रह्म' भी कहा जाता है और अविनाशी आत्मा इस सर्वशक्तिमान् ब्रह्म का ही रूप है ।
इस मंत्र में अनुभव करने की स्थिति तथा अनभव करने योग्य शक्ति की व्याख्या की गयी है और साथ ही साधक को 'साधन' द्वारा इस अवस्था को अपने भीतर अनुभव करने का परामर्श दिया गया है । तभी वह परमात्मा की सनातन अनुभूति कर सकेगा । इस अनुभव पर ही परम-सुख निर्भर है। यह शाश्वत एवं अनुपम शान्ति मोक्ष का पर्यायवाची शब्द है । इसे सर्वज्ञ ब्रह्म भी कहा गया है क्योंकि यह ज्ञान द्वारा प्राप्य एकमात्र केन्द्र 'अजात' आत्मतत्त्व के अनुरूप है । इस अध्याय में हमने अब तक जो कुछ कहा है उसे ध्यान में रखते हुए अब और किसी व्याख्या की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती क्योंकि सब बातों पर पूर्ण रूप से प्रकाश डाला जा चुका है।
जिस परम-शान्ति का ऊपर उल्लेख किया गया है और जिसे मन को निश्चल तथा संकल्प-हीन कर के अनुभव किया जा सकता है वही सर्वोत्रम
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