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( २२१ )
दृष्टि से इनके दुःखप्रद घावों को देख पाते हैं।
यहाँ श्री गौड़पाद ज्ञान-मार्ग के यात्री को यह परामर्श देते हैं कि वह अपने जीवन का मूल्यांकन करने के उपाय द्वारा इस तरह परिचित हो और अपनी विवेक-बुद्धि को यथोचित उपयोग में लाए । जो साधक इस मार्ग पर सतर्कता से चलता रहेगा उसे ध्यानावस्था में न तो अतीत के हर्ष का स्मरण रहेगा; न उसे वर्तमान उपायों का रसास्वादन करना होगा और न ही कल्पित सुखों की लालसा उसे चलायमान रखेगी। इस प्रकार अभ्यास करते रहने पर एक विवेकपूर्ण योगी अपने मन के विक्षेपों पर नियंत्रण रखता है ।
मन को शान्त कर लेने पर भी हमें पाँच विषय-कूकरों से जूझना शेष रहता है जो हमारी आत्मा की निस्तब्धता में सदा बाधा डालते रहते हैं । कोई सच्चा साधक ध्यानावस्था में इस बात को अनुभव नहीं करेगा । यहाँ श्री गौड़पाद इस कोटि के सिद्ध पुरुषों के विषय में कहते हैं कि सर्व-व्यापक सनातन-तत्व की सत्ता का ज्ञान रहने के कारण उनकी इन्द्रियाँ मन में लेशमात्र विक्षेप करने में असमर्थ होती हैं। इनके लिए विषय-पदार्थ वही महत्त्व रखते हैं जो इनकी अपनी इन्द्रियाँ । 'शब्द' इनका 'कान' है; 'रूप' इनकी 'दृष्टि' है । इनकी यह धारणा रहती है कि यदि संसार में विविध नाम-रूप पदार्थ न होते तो हमें अपने 'नेत्र' के अस्तित्व का ज्ञान तक न रहता और ये (नेत्र) हमारी नाभि की भाँति केवल दो छिद्र बन कर रह जाते अर्थात् हम इनकी क्रिया से पूर्ण रूप से अनभिज्ञ रहते ।
___ इस प्रकार 'कान' फैल कर 'ध्वनि' बन गये ; 'दृष्टि' ने अनेक नामरूप पदार्थों की आकृति ग्रहण कर ली इत्यादि । वास्तव में 'चेतना' ही हमारी इन्द्रियों को गतिमान रखती है और यही शक्ति हमारे मन एवं बुद्धि को दीप्तिमान करती है । जिस व्यक्ति ने देवी सर्व-व्यापक प्रात्म-शक्ति से साक्षात्कार कर लिया है और जो इसकी ज्योति के अक्षुण्ण प्रवाह द्वारा मालोकित हो चुका है वह इन्द्रियों की भूल-भलयों में कभी नहीं फंस सकता।
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