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जाल में बँधा रहता है । यह मन केवल उन पदार्थों की ओर भाग सकता है जिन में इन तीन मिथ्या धारणाओं में से कोई एक भ्रान्ति पायी जाए – (१) सत्यत्व भावना; (२) नित्यत्व भावना और (३) समचीनत्व भावना । ये तीन धारणाएँ स्थूल पदार्थों में हमारे मन का आरोप होने के कारण प्रतीत होती हैं जबकि इन पदार्थों में स्वतः कोई ऐसा गुण नहीं पाया जाता ।
यह एक ऐसी धारणा है जो हमारे इस अन्ध विश्वास के कारण प्रकट होती रहती है कि संसार के इष्ट पदार्थों में मूलतः इन गुणों का समावेश होता है । यह बात भी मानने योग्य है कि जहाँ ये गुण दिखाई नहीं देते उस ओर हमारा मन प्रवृत्त नहीं होता । हमारे मन को समझाने का एक मात्र प्राचार्य हमारी विशुद्ध विवेक शक्ति (बुद्धि) है । आजकल के औसत व्यक्ति की बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है। इसलिए ग्राध्यात्म मार्ग को अपनाने वाले साधक को यह परामर्श दिया जाता है कि वह अपने मन को उन प्रावरणों से युक्त रखे जो उसने अपने आप ला खड़े किये हैं ।
बुद्धि की विशुद्ध ज्योति को इसे ढांपने वाली मानसिक धुंध से दूर रखो । बुद्धि को मानसिक प्रलोभनों के पाश से अलग रखने की क्रिया को अध्यात्म साहित्य में 'विवेक' शब्द से स्मरण किया जाता है । जब हम 'विवेक' द्वारा विषय-पदार्थों के वास्तविक सुख का विश्लेषण करते हैं तब हमें इनकी निस्सारता का ज्ञान होने लगता है । उस समय हम नत मस्तक हो कर सोचने लगते हैं कि इन मिथ्या गुणों में प्रवाधु ंध आस्था रखने से हम कितनी भ्रान्ति का शिकार बने रहे हैं । तब हम उन मनमोहक विषय-पदार्थों के दुःखःपूर्ण नृत्य द्वारा मुग्ध हो कर सत्य मार्ग पर दृढ़ता से अग्रसर होने में प्रयत्नशील रहते हैं । जो पुरुष अपनी जाग्रत बुद्धि के शिखर से संसार पर दृष्टिपात करता है उसे संसार के पदार्थों में रत्ती भर हर्ष अथवा विषाद का अनुभव नहीं होता । उसे इन विषय-पदार्थों के वास्तविक स्वरूप ( शक्तिहीनता एवं खोखलापन) का पूरा ज्ञान हो जाता है। ऐसे स्थितप्रज्ञ ही इन स्थूल पदार्थों के गिर्द रहने वाले शान्तिमय परन्तु मनोहारी पर्दे को चीर कर अपनी पैनी
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