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( २१८ ) उस पर भगवान् अपना गुरु का अनुग्रह न हो। भगवद्-अनुग्रह अथवा मुरुरुपा तभी उपलब्ध होगी जब हम सच्चे दिल से भ्याम-मग्न हों।
इस मंत्र को भाने वाले सात मंत्रों की भूमिका ही समझना चाहिए । इन मंत्रों के बाद यह अध्याय समाप्त होता है । जैसा हम कह चुके हैं. यह पुस्तक उपदेश-ग्रन्थ है । इसलिए इस तरह के साहित्य के साहित्यिक नियम के अनुसार श्री गौड़पाद स्पष्ट रूप से ऐसी हिदायतें देते हैं जिनका पालन करते हुए साधक परिपूर्णता के मार्ग पर आगे बर पाते हैं । इस सत्य-पष का प्रदर्शन करने वाले सात मंत्रों में अमूल्य निर्देशों का समावेश किया गया है । इनको ध्यान में रखते रहने पर साधक को साधन-सम्बन्धी किसी गम्भीर समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा; किन्तु ऐसा व्यक्ति एक सच्चा -साधक होना चाहिए । ऐसे साधकों का मिलना प्रायः दुर्लभ है ।
उपायेन निगृह्णीयाद्विक्षिप्तं कामभोगयो : ।
सुप्रसन्नं लये चैव यथा कामो लयस्तथा ॥४२॥ कामना पोर भोग द्वारा जिसका मन विक्षेप को प्राप्त हो चुका है और जो (मन) पूर्ण विस्मृति (लय) का उपयोग करता है उसे उचित उपायों द्वारा इस (मन) का उद्बोधित करके पूरे नियंत्रण में लाना चाहिए । 'लय' को अवस्था इतनी हानिकारक है जितना विचारों का प्रवाह ।
इस मंत्र में श्री गौड़पाद धान-मार्ग पर चलने वाले सच्चे साधक को लाभप्रद निर्देश देने का प्रयास कर रहे हैं जो उसे ध्यानावस्थित होते हुए संभावित बाधाओं से सुरक्षित रख सकेंगी। इनको ध्यान में रख कर वह (साधक) अपने मन को इन गड्ढों से दूर रख कर अतीत की उड़ान भरने में समर्थ होता है । - सबसे अधिक दुष्कर एवं दुःभप्रद बाधाओं में से एक रुकावट बह है । हमारे मन को सहसा विच्छिन्न कर देती है । इसे संस्कृत में 'लय' (निद्रा
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