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( २१६ ) अथवा मुग्धावस्था) कहते हैं । जब हम ध्यान में बैठ कर अपने मन को स्थल पदार्थों के क्षेत्र से हटाते और एकाग्रता द्वारा उसे एकस्थ कर देते हैं तब इस के प्रज्ञान (जिसे निद्रा या विस्मृति कहा जाता है) के गत्तं में गिरने की संभावना होती है । यह निद्रा हमारी सामान्य निद्रा से भिन्न होने के साथ हर्ष-पूर्ण मनमोहकता लिये रहती है । कई व्यक्ति इसे भूल से 'समाधि' कह देते हैं। इस लिए ऋषि ने परामर्श दिया है कि इस अवस्था से मन को उद्बोधित कर के फिर ध्यान-मग्न होना चाहिए ।
कई बार हमारा मन बीते हुए, बीत रहे और कल्पित हर्ष-सम्बन्धी अनुभवों की भूल-भुलयों में भटकता रहता है । आत्मानुभूति के मार्ग पर चलने वाले सच्ने साधक को लय एवं कामना की स्थितियों से सतर्क रहना चाहिए क्योंकि इन दोनों का परिणाम भयंकर होता है । 'लय' (आध्यात्मिक निद्रा) अथवा अक्षुण्ण इच्छा के प्रवाह में बह जाने वाला साधक अपने मन का निग्रह करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं कर सकता ।
दुःखं सर्वमनुस्मत्य काम भोगान्निवर्तयेत् ।
अजं सर्वमनुस्मृत्य नातं नैव तु पश्यति ॥४३॥ इस धारणा को समक्ष रखते हुए कि दृष्ट-पदार्थ दुःख का घर है, मन को भोग से होने वाले हर्ष से दूर रखो। यदि हम अजात 'ब्रह्म' का निरन्तर ध्यान करते रहेंगे तो द्वैत-पदार्थ हमारे अनुभव में न पाने पायेंगे ।
एक पिछले मंत्र में यह बताया गया था कि हमें अपने मन को इच्छाओं से किस प्रकार दूर रखना चाहिए । हमें यह भी पता चल चुका है कि माध्यात्मिक जगत् में मन को निष्क्रिय करना जरूरी होता है और ऐसा करने पर सतत प्रयत्न द्वारा हम उसे उन्नत कर सकते हैं । यहां हमें ऐसी हिदायतें दी गयी हैं जिनका पालन करके हम अपने सामान्यतः विक्षिप्त मन को वश में ता सकते हैं।
हर्ष प्राप्त करने की इच्छा से पूर्ण मन साधारणतः सूक्ष्म पदार्थों के
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