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का सहारा लेते हैं प्रदाता है ।
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( २१६ )
वे अपने मन को वश में रखने के लिए उस कात्म-ज्ञान जो निर्भयता, सुख एवं शान्ति का
पिछले मंत्र में हमने वेदान्तियों के अतिरिक्त आत्मानभूति के जिन मार्गों का वर्णन किया है वे सब शारीरिक प्रक्रिया द्वारा मानसिक उन्नति की प्राप्ति में आस्था रखते हैं । भक्ति मार्ग के अनुयायी अपने भावों पर प्राश्रित रहते हैं जब कि 'हरु-योग' को अपनाने वाले 'प्राणायाम' द्वारा अपने मन को वश में लाने में प्रयत्नशील होते हैं । इन सब के विपरीत वेदान्तवादी अपने मन का निग्रह बुद्धि के श्रेयस उपकरण द्वारा करते हैं । 'विवेक' वह सूक्ष्म गतिमान शक्ति है जिसके द्वारा वे अपने मन का नियंत्रण एवं नियमन करते हैं ।
इस मंत्र में प्रयुक्त 'निर्भयता', 'दुःख नाश', 'श्रात्म-ज्ञान' अथवा 'शाश्वत शान्ति' शब्द परमात्म-तत्त्व या विशुद्ध चेतना के उस ध्येय की ओर संकेत करते हैं जिसे प्राप्त करने के लिए सभी धर्मानुयायी प्रयत्नशील रहते हैं । यहाँ इनकी अलग-अलग व्याख्या करना व्यर्थ होगा क्योंकि प्रारम्भिक प्रयत्नों में इन पर पूरा प्रकाश डाला जा चुका है ।
उत्सेक उदधेर्यद्वत्कुशाग्रेणैकविन्दुना ।
मनसो निग्रहस्तद्भवेदपरिखेदतः ॥४१॥
सतत प्रयत्न करते रहने पर ही मन को वश में लाया जा सकता है जिस प्रकार कुशा के एक तिनके द्वारा समुद्र को रिक्त करने के लिए अनुपम साहस एवं प्रयत्न होना आवश्यक है ।
समुद्र को रिक्त करने के प्रयत्न का यहाँ जो प्रसंग दिया गया है उस का उल्लेख 'हितोपदेश' की तिथिपोपाख्यान नामक कथा में किया गया है । मूल कथा में कहा गया है कि एक पक्षी ने समुद्र के तट पर अण्डे दिये । समुद्र में ज्वार-भाटा आने पर वे सब समुद्र में बह गये । जब पक्षी ने वहाँ लौट कर अपने अण्डे न पाए तो उसने अपने मन में दृढ़ संकल्प कर लिया कि
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