________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( २१४ )
विषय-पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद करना ही वह वेदान्त अभ्यास है जो हमारा आध्यात्मिक विकास कर देता है । इस विचार को 'अस्पर्श-योग' शब्द द्वारा ही इतनी स्पष्टता से व्यक्त किया जा सकता है ।
इस शब्द में पारस्परिक विरोध पाया जाता है । 'योग' का अर्थ (युज् - जोड़ना) वह क्रिया है जिसके द्वारा श्रात्म-तत्त्व का परमात्मा में विनय होजाता है । इस क्रिया द्वारा शरीर, मन, बुद्धि आदि सहित अहंकार' स्थूल पदार्थों से अपना सम्बन्ध तोड़ने में प्रयत्नशील होता है और अन्त में यह अपनी पृथक् सत्ता को खो देता तथा प्रात्म-स्वरूप को ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार ऋषियों द्वारा निर्धारित श्रात्मानुभूति को प्राप्त करने के लिए वेदान्त ने एक विविध प्रक्रिया की व्यवस्था को है जिसे एक साथ अपनाना श्रेयस्कर है ।
किसी एक साधक के लिए परम सत्ता तथा इसके वास्तविक स्वरूप पर ध्यान जमाना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे इस मन से सम्बन्ध विच्छेद करना होगा जो हमारा इन्द्रियों प्रादि के द्वारा हमें बन्धन में जकड़े रखता है । इस तरह हम एक और मात्मा से इतर सत्ता को अलग करना है और दूसरी बार 'आत्मा' के सनात गुणों का विधि पूर्वक मनन करना है । 'आवश ग्राम' शब्द इन दोनों प्राध्यात्मिक प्रक्रिया नामक एवं नकारत्मक का खातक है । 'प्रस्पर्श' का अर्थ है अवास्तविकता के प्रति अपने मोड़ तथा बन्धन का त्याग करना और 'योग' उस प्रवास का सूचक है जिसके द्वारा साधक को विशुद्ध जीवात्मा यथार्थ एवं सनातन तत्त्र से पुनः अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेती है ।
भ्रान्ति पूर्ण 'भूत' के परोक्ष रहने वाली वास्तविकता की खोज करने की दो क्रियाएँ हैं -- प्रवास्तविक 'भूत' से सम्बन्धित मिथ्या धारणा का पूर्ण रूप से त्याग करना और साथ ही 'सम्भे' के स्वरूप का ध्यान करने की योग्यता प्राप्त करना । हमें इन दोनों तरीक़ों को एक साथ दृढ़ता-पूर्वक अपनाना है ताकि अन्ततोगत्वा हम दृष्ट-भ्रान्ति के पीछे रहने वाली बास्तविक सत्ता
For Private and Personal Use Only