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( २१२ ) है । यह ज्ञान अनादित्व एवं समता की अवस्था को प्राप्त करता है ।
पिछले मंत्र में हमें बताया गया था कि मन का निग्रह करने पर हम , परमात्म-तत्त्व को व्यक्तिगत अनुभूति कर सकते हैं। मन का निष्फल होना ही परमात्मा के दर्शन करना है। प्रात्मा में विचार, भावना और वासनाओं का आदान-प्रदान नहीं होता । 'सत्य' का सृजन, पालन तथा संहार होना असंभव है। इस आध्यात्मिक केन्द्र में मन के किसी संकल्प-विकल्प के लिए स्थान नहीं है।
जिस क्षण मन हमारे वश में आ जाता है उसी क्षण हम अविनाशी हो जाते हैं क्योंकि तब हमारा नश्वर मिथ्याभिमान सत्य-सनातन में विलीन हो जाता है तथा उसके बाद यह नाश-रहित कहलाने लगता है क्योंकि 'आत्मा' में कोई विकार नहीं हो सकता ।
अविनाशी-तत्त्व निश्चित् रूप से एक-रूप रहेगा और न ही इसके भाग किये जा सकेंगे । अद्वैत, सनातन और सर्व-व्यापक 'चेतना' स्वभाव से सनातन-रूप है । 'अहकार' का नाश हो जाने पर हमारा मन परमात्मा की प्राप्ति कर लेता है । जब हमारा पार्थक्य समाप्त हो जाता है और हमारे मन एवं बुद्धि निश्चलता को प्राप्त कर लेते हैं तब हमें विशुद्ध ज्ञान का वास्तविक अनुभव हो जाता है ।
अस्पर्शयोगो वै नाम दुर्दशः सर्वयोगिभिः ।
योगिनो बिभ्यति ह्यस्मादभये भयदर्शिनः ॥३६॥ यह योग, जिसे अस्पर्श योग कहते हैं, सभी योगियों द्वारा सुगमता से प्राप्त नहीं किया जा सकता । योगी तो इस मार्ग को अपनाने से डरते हैं क्योंकि व इस परम-तत्त्व से भयभीत रहते हैं । इसको प्राप्त करने पर ही निर्भयता की वास्तविक स्थिति का अभव होता है।
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