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( २११ ) इस लिए यहाँ श्री गौड़पाद ने 'साधन' के प्रादर्श की अोर संकेत करने के लिए 'समाधि' शब्द का सुन्दर एवं उपयुक्त प्रयोग किया है ।
अवनति की ओर जा रहे हमारे हिन्दू धर्म में 'समाधि' शब्द का सर्वथा दुरुपयोग किया जाता है । आध्यात्मिक ज्ञान न रहने के कारण इस शब्द (समाधि) को सुनते ही हमारे सामने एक ऐसे दम्भी योगी का चित्र प्रा जाता है जो भूमि में गड्ढा बना कर उसमें बन्द होना चाहता है । इन क्रियाओं का समाधि' से कोई सम्बन्ध नहीं। 'घ' शब्द का अर्थ है 'बद्धि' । इस तरह 'समाधि' का अभिप्राय 'बुद्धि की सन्तुलित स्थिति' हुमा । दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि एक सिद्ध पुरुष निज मन एवं बुद्धि को अपने वश में रखता है जिससे उस की बुद्धि पूर्ण रूप से स्थिरता तथा सन्तुलन का अनुभव करती रहती है। वह (बुद्धि) जीवन की विविध परिस्थितियों के विकराल नृत्य से पृथक रहती है । ऐसी पूर्णावस्था में ही हम परम-तत्त्व को सुविधा-पूर्वक अनुभव कर सकते हैं । अतः समाधिस्थ' होने से यह न समझना चाहिए कि यह किसी यौगिक-चमत्कार अथवा जन-समह के मनोरंजन के लिए किये गये तमाशे की क्रिया है । यह सन्तुलन केवल वह व्यक्ति अनुभव कर सकता है, जिसकी बुद्धि पूर्णतः परिपक्व है और जिसने अपन ब्यक्तित्व को संतुलित कर लिया है । ऐसा मनुष्य अपने भीतर अविरल गति से प्रवाहित मूक-मानन्द का अनुभव करने लगता है । विवेकमयी बुद्धि के साथ अपने मन के विविध विक्षेपों पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लेने के कारण प्रात्म-विश्वास रखने वाला यह व्यक्ति जीवन के प्रति किसी तरह का मोह नहीं रखता।
ग्रहो न तत्र नोत्सर्गश्चिन्ता यत्र न विद्यते ।
आत्मसंस्थं तदा ज्ञानमजाति समतां गतम् ॥३८॥ अात्मा में, जो मन की सभी क्रियाओं की अन्तिम पूर्ति है, न तो कोई दृष्टि (अनुभूति) है और न ही विचारों की कोई बिज़म्भना । अपने आप में स्थित प्रात्मा ज्ञान द्वारा व्याप्त
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