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से पहले सनातन-तत्त्व की परिभाषा क्यों नहीं की गयी । दूसरे शब्दों में यहाँ हमें बताया गया है कि परमात्मा को भाषा-बद्ध करना अथवा किसी प्रकार वर्णन करना एक असंभव प्रयास है।
'अभिलाप:'--वर्णन करना । यहाँ उस उपकरण की ओर संकेत किया गया है जिसके द्वारा हम ध्वनि करके अपने भाव व्यक्त करते हैं । इसका यह अभिप्राय है कि यह अमृत-तत्व प्रकट नहीं किया जा सकता अर्थात् यह हमारे मन द्वारा इस प्रकार समझा नहीं जा सकता जिस प्रकार यह (मन) हमारो ज्ञानेन्द्रियों की मूक भाषा को समझ कर बाह्य-संसार के विषयपदार्थों का स्पष्टीकरण करता है । यह बात हमें भली-भाँति विदित है कि हम केवल स्थूल दृष्ट-पदार्थों को भाषा द्वारा वर्णन कर सकते हैं । ___इस मंत्र में एक और शब्द के प्रयोग द्वारा यह बताया गया है कि यह (आत्मा) “मन की क्रियात्रों की परिधि से परे है" । यदि यह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं तो इसे महसूस करना संभव हो सकता है-यह विचार हमारे मन में उठ सकता है । 'प्रेम' को ही लीजिए ---इसे हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा देख नहीं सकते ; फिर भी यह महसूस किया जाता है। जहाँ तक अविनाशी आत्मा का सम्बन्ध है इसे महसूस भी नहीं किया जा सकता। जब मन हमारी किसी वासना से पृथक् होकर इसके प्रति निज प्रतिक्रिया को प्रकट करता है तब हम उसको महसूस कर पाते हैं । विशुद्ध चेतना तो हमारे मन का 'सार' है जिससे इसका उस (मन) से अलग होना एक असंभव बात है क्योंकि ऐसा होने पर 'मन' अपने गुण-स्वभाव से वंचित हो जायेगा । इस तरह हमें पता चला कि आत्म-तत्त्व हमारे मन का अनुभूत पदार्थ नहीं हो सकता।
इसके बाद कहा गया है कि यह (आत्मा) हमारी बुद्धि से भी परे है । एक नास्तिक इस परिभाषा को मानने के लिए कभी तैयार न होगा क्योंकि उसकी कल्पना-शक्ति 'प्रात्म-विचार' तक उड़ान करने में असमर्थ होती है और न ही वह इस तत्त्व की अनुभूति के समर्थ होता है क्योंकि यह सत्ता बुद्धि मन और इन्द्रियों को लाँघने पर ही हम अनुभव कर सकते हैं ।
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