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( २०७ ) भूत' की प्रान्ति कैसे होगी ? प्रत्यूष काल में हमें सर्प की भ्रान्ति तभी होगी जब कोई रस्सी हमारे सामने पड़ी हो ।
'अनामकमरूपकम्'-विना नाम तथा रूप । परम-तत्त्व में नाम-रूप संसार नहीं रह सकता क्योंकि इस यथार्थता में दृष्ट-संसार का मिथ्यात्व कभी नहीं रह पाता।
सकृत विभातम्'-सला जाज्वल्यमान् । यह तथ्य उपनिषदों के सैकड़ों अनुच्छेदों में समझाया गया है कि 'आत्मा' सब ज्योति का आदि-स्रोत है । यह ज्योति सूर्य अथवा अग्नि के समान नहीं समझो आनो चाहिए । बह तो 'बुद्धि की प्रवरता' है जिसे हम चेतना कहते हैं । स्वयं आलोकित होने का अर्थ यह भी है कि इसका कोई द्रष्टा नहीं; यह तो स्वतः ज्ञानभण्डार है । पाने वाले अध्याय में इस शब्द को अधिक विस्तार से समझाया जायेगा।
'सर्वज्ञम'- सब कुछ जानने वाला । हर विचारवान् प्राणी के भीतर रहने वाला ज्ञाता स्वतः प्रकाशपुज है । सर्वव्यापक, सनातन तथा, विशुद्ध होने के कारण, अविभाज्य तत्त्व तीन-काल में एक समान रहता है । इसलिए इसे 'सर्व' कहना सर्वथा उचित है।
इस मंत्र में निषेधात्मक भाषा द्वारा संसार के अनुभूत पदार्थों की सत्ता को न मान कर अद्वैत एवं सर्व क्रियमाण विशुद्ध-चेतना की परिभाषा की गयी है। _____ सनातन-तत्त्व की अनुभूति करने के लिए किसी यज्ञ-सम्बन्धी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है । इस दिशा में आत्मा को अनुभव करन के कारण 'ध्यान' भी नहीं होता । यह कहना उचित नहीं कि परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति 'साधन' द्वारा होती है । यदि यह बात ठीक होती तो यह (आत्मा) किसी कारण का परिणाम बन कर रह जाता और तब परमेश्वर को नित्यता का अपवाद होता । वेदान्तवादियों का सिद्धान्त है कि 'साधन' तया 'ध्यान' द्वारा हम केवल अपने भीतर के नश्वर, जात तथा सामित प्रज्ञान को समाप्त कर देते हैं। जिसके नष्ट होने पर स्व-प्रकाशित और प्रात्म-विद् ज्ञान अपने
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