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( २१५ ) के प्रति जागरूक हो सक । इन निश्चित एवं निषिद्ध प्रक्रियाओं को अपनाना अर्थात् माध्यात्मिक अभ्यास को उपयोग में लाना योगियों के लिए भी दुष्कर है ।
श्र। गौड़पाद के इन शब्दों से कि यह प्रक्रिया महान् योगियों के लिए मी प्रतीव कठिन है यह प्रकट नहीं होता कि कोई साधक इस पूर्णावस्था की प्राप्ति कर ही नहीं सकता। हमें तो यहाँ यह समझना है कि प्रात्म-स्वरूप को अनुभव करना कितना कठिन कार्य है । यहाँ साधकों को किसा प्रकार निरुत्साहित करने का उद्देश्य नहीं बल्कि उन्हें यह घेतावनी देना है कि इस दिशा में सतत प्रयत्न करते रहना अनिवार्य है।
योगियों के विपरीत द्वैतवादी सदा इस विचार से भयभीत रहते हैं कि अपने इस प्रयास में सफल हो माने पर उनको पृथक् सत्ता (जीव-भावना) समाप्त हो जायेगी और वे आत्मा में विलीन हो जायेंगे। वे चाहते हैं कि इन दोनों (जीव तथा परमात्मा) की सत्ता बनी रहे । दूसरे शब्दों में वे परम-सत्ता को अपने से पृथक् देख कर आनन्द लेते रहना चाहते हैं । उनका यह अाग्रह उस मय का सूचक है जो उन्हें आत्म-केन्द्रित जीवन का परित्याग करने से रोकता रहता है।
__वास्तव में परमात्म-स्थिति भय-रहित है; फिर भी द्वैतवादी अपने पृथक् व्यक्तित्व का पूर्णरूपेण समर्पण करने से घबराते हैं और साथ ही वे इस सनातन-तत्व का मता को स्वीकार करते हैं । जब तक माधक अपने व्यक्तित्व को समर्पण करन का दृढ़ निश्चय नहीं करते तब तक उन्हें आध्यात्मिक परिपूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकती और न ही वे परमात्मा की प्राप्ति कर सकते हैं।
___वह संसारी जो दुःखपूर्ण तथा नश्वर जोवन व्यतीत करता है 'स्पर्शयोगी' है । इसके विपरीत हम उस देवी परुष को 'अस्पर्श-योगी' कहते हैं जो निष्ठा से सनातन एवं अविनाशी जीवन बिताता है ।
मनसो निग्रहायत्तमभयं सर्वयोगिनाम् । दुःखक्षयः प्रबोधश्चप्यक्षया शान्तिरेवच ॥४०॥ जो योगी कारिका में बताये गये ज्ञान-मार्ग को नहीं अपनाते
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