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यदि हम सत्य-सनातन को निद्रा-रहित कहें तो कारण-शरीर की सुषुप्तावस्था में, जब हम अज्ञान-तिमिर में खोये रहते हैं, प्रात्मा के अस्तित्व को न स्वीकार करना होगा । प्रगाढ़ निद्रा में प्रौखत बुद्धि वाला व्यक्ति भी 'प्रज्ञान' को अनुभव करता रहता है । हमें विदित है कि निद्रा 'चेतना' की वह स्थिति है जब हम कारण-शरीर कोश से सम्बन्ध स्थापित किये होते हैं। यह बात हम पहले बता चुके हैं । निद्रा वह स्थिति है जब 'मन' अज्ञान में मग्न हो जाता है।
इस तरह यहाँ 'निद्रा' शब्द का अर्थ 'प्रज्ञान' समझना चाहिए । प्रात्मस्वरूप का अनुभव हाते ही अज्ञान का लेशमात्र नहीं रह सकता अर्थात् शान को जानने पर अज्ञान का लोप हो जाता है । खम्भे का ज्ञान न होने पर भूत का आभास होने लगता है । जिस क्षण 'भूत' के मिथ्यात्व का ज्ञान होता है, तत्क्षण हम खम्भे को यथार्थता को जान लेते हैं। तब हमें वह भ्रान्ति नहीं रहतो जिसके कारण हमने अज्ञानवश खम्भे के स्थान में 'भूत' के दर्शन किये थे । प्रात्म-केन्द्र को खोज कर लेने पर हमें निज स्वरूप के प्रति रत्ती भर भ्रान्ति नहीं रहती और पदार्थमय दृष्ट-संसार के मिथ्यात्व का पता चल जाता है
__ 'अस्वप्न'–स्वप्न-रहित । इसका अर्थ न केवल हमारी स्वप्नावस्था का समावेश होना है बल्कि जाग्रतावस्था को भी ध्यान में रखा गया है क्योंकि एक वेदान्तो के लिए स्वप्नावस्था और जाग्रतावस्था में कोई भेद नहीं है । एक अवस्था (जाग्रत) केवल दूसरी अवस्था (स्वप्न) का विस्तारमात्र है । यहाँ 'स्वप्न' शब्द का यह अभिप्राय है कि इसके द्वारा स्वप्न-द्रष्टा का मन नाम-रूप के स्थान में सुख-दुःख, हर्ष-शोक, जय-पराजय आदि द्वन्द्वों की मनुभूति करने लगता है । जिन्हें हम दृष्ट-पदार्थ संसार में श्रेणा-बद्ध करते हैं । इन सब की हमें केवलमात्र भ्रान्ति होती रहती है क्योंकि हम अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाते । जिस यथार्थ-तत्त्व का कारण नहीं, भला उस का प्रभाव क्या हो सकता है ? जहाँ खम्भा ही नहीं, वहां हमें
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