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की अवस्था से सर्वथा भिन्न है ।
सुषुप्तावस्था
जो व्यक्ति अब तक इन प्रवचनों को समझते आ रहे हैं वे में मन की स्थिति को उपर्युक्त (मन-निग्रह ) अवस्था के तुल्य मान सकते हैं क्योंकि इस समय तक हमें यह बताया जा चुका है कि परम-ज्ञान वह अवस्था है जिसमें मन बाह्य-संसार की किसी वस्तु को देख कर केवल आत्मानुभूति करने लगता है । अतः यह भ्रान्ति हो सकती है कि जिस सुषुप्तावस्था में हमें TM 'जाग्रत' संसार तथा 'स्वप्न' जगत् के अनेकत्व का ज्ञान नहीं रहता उसके समान ही आत्मानुभव की अवस्था होगी । इस भ्रान्ति को निवारण करने की दृष्टि से श्री गौड़पाद ग्रात्म-ज्ञान की भिन्न स्थिति को साफ़ तौर पर समझा रहे हैं
हमे इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि 'कारिका' में 'माण्डूक्योपनिषद्' को व्याख्या की गयी है । शास्त्रों में हमें तीन ( ' जाग्रत', 'स्वप्न' तथा 'सुषुप्त') अवस्थाओं के विषय में जानकारी दी गयी है । श्रुति-ज्ञान देने वाले ऋषियों ने चौथी (तुरीय) अवस्था की ओर भी संकेत किया है । वे कहते हैं कि चतुर्थावस्था को प्राप्त करने वाले सिद्ध पुरुष को पदार्थमय- संसार की अनुभूति नहीं होती । प्रस्तुत मंत्र में इस 'तुरीयावस्था' को यथार्थ रूप से वर्णन किया गया है ।
इस उपनिषद् से सातवें मंत्र में अपवाद रूप से एवं निश्चित भाषा में 'श्रुति' द्वारा इस ( तुरीय) अवस्था को बताया गया है किन्तु मन तथा बुद्धि के अधूरे उपकरण को रखने के कारण हम कदाचित् इस ( अवस्था ) को ठीक तरह समझ न पाये हों । इस श्लोक में दिये गये शब्दों को पूर्णतः समझना अत्यन्त आवश्यक है ताकि हम इस अवस्था को अपनी बुद्धि द्वारा जान सकें । जब हम पूरी तरह समाधिस्थ होते हैं तब हमारा अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण रहता है किन्तु इस 'निग्रह' से हमारे मन की क्रियाओं को बलात् दबाता बांच्छनीय नहीं होगा ।
परिपूर्ण परमात्म-तत्त्व से साक्षात्कार करने के लिए मन को बलपूर्वक रोकना उचित साधन नहीं है । हमें तो निरन्तर विवेक ( शान) द्वारा इस ( मन )
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