________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( २०० )
अन्य धर्म-ग्रन्थों में भी इस महान् सत्य की व्याख्या की गयी है। जिस क्षण हमें (खम्भे के) भूत के यथार्थ रूप का ज्ञान हो जायेगा उसी समय वह (भूत) उसी खम्भे में समा जायेगा और तत्सम्बन्धी हमारा ज्ञान पूर्ण हो जायेगा । ऐसे ही, जब हम दृष्ट-जगत की वास्तविकता को समझ लेंगे, उस समय हमें ज्ञान की प्राप्ति होगी। इस प्रकार जब हमारा मन बाह्य वस्तुओं को पृथक् नहीं देखता, अर्थात् जब हमारे मन में विक्षेप नहीं होता, तब आत्मा का इस (मन) पर प्रभुत्व स्थापित हो जाता है । प्रात्मा द्वारा भौतिक पदार्थो पर विजय पाने के क्षरण हमें प्रात्मानुभूति हो जाती है ।
आत्मानुभव होने पर अन्तमुखी चेतना केवल अपने आप को ही देखती है अर्थात् कर्ता द्रष्टा) का ही अस्तित्व रह पाता है किन्तु जब 'कर्म' न हो तब 'कर्ता' का महत्त्व क्या होगा ? इस लिए यह शंका उठती है कि फिर इस सर्वज्ञ कर्ता द्वारा किस (पदार्थ) को आलोकित किया जाता है ।
यहाँ भगवान् गौड़पाद हमें बताते हैं कि वह (आलोकित) तत्त्व 'ब्रह्म' ही है अर्थात् केवल 'ब्रह्म' (कर्ता) की ही सत्ता बनी रहती है और कोई दृष्टवस्तु नहीं रहती; 'प्रात्मा' अपने आप का द्रष्टा होता है। इस कारण यहाँ कहा गया है कि 'अजात' ही 'प्रजात' को जान सकता है । 'मर्त्य' किस प्रकार 'अमर्त्य' के स्वरूप को धारण कर सकता है ? वास्तव में मर्त्य को यह ज्ञान हो जाता है कि वह स्वयं अमर्त्य है । मन तथा बुद्धि द्वारा 'ब्रह्म' ग्राह्य नहीं है । इनका अतिक्रमण करने पर ही 'आत्मा' का ‘परमात्मा' में विलय हो जाता है।
निगहीतस्य मनसो निविकल्पस्य धीमतः । प्रचारः स तु विज्ञेयः सुषुप्तेऽन्यो न तत्समः ॥३४॥
जिस मन को वश में लाया जा चुका है (अर्थात् जिसमें संकल्प-विकल नहीं होते) और जिस (मन) का विवेक-पूर्ण निग्रह किया गया है उस (मन) को जानना चाहिए । सुषुप्तावस्था में इस की और ही स्थिति होती है जो नियंत्रित मन
For Private and Personal Use Only