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को आत्मघाती संकल्प-विकल्प से दूर रखना होगा । बुद्धि (विवेक) की सहायता लिये बिना मन का बलात् निरोध करना एक विफल प्रयास है । विवेक तथा विज्ञानपूर्ण धारणा द्वारा मन के अस्तित्व को मिटाने का हमें प्रयत्न करना चाहिए; ऐसा करने पर ही हमें आध्यात्मिक परिपूर्णता की अनुभूति हो सकतो है।
इस तत्त्व को प्रकट करने के लिए अर्जुन के रथ के पांच घोड़ों की बाग (लगाम) को पकड़े हुए भगवान् पार्थ-सारथि (श्री कृष्ण) को दिखाया गया है। जब हम इस चित्र पर 'कठोपनिषद्' में बताये गये 'रथ' के उदाहरण की दृष्टि से विचार करते हैं तब हम तुरन्त जान लेते हैं कि शुद्ध बुद्धि (विवेक) को हो सारथी के रूप में दिखाया गया है । इससे हमें पता चलता है कि केवल वह साधक अनन्त-शक्ति की प्राप्ति की लम्बी यात्रा को पूरा करता है जो पञ्चेन्द्रियों को विवेक-शक्ति द्वारा शासित मन के वश में कर लेता है। ____ यही कारण है कि जब कई वर्ष ध्यान-क्रिया करते रहने पर साधक इस दिशा में कोई प्रगति अनुभव नहीं करते तब वे ऐसा समझने लगते हैं कि वे कहीं के न रहे । इस प्रसफलता का कारण यह है कि ये व्यक्ति बलात् मन का निग्रह करने में लगे रहते हैं जिससे उनका मन दबा रहता है न कि वासना-रहित । इस तरह हम बहुत से ऐसे योगियों की दुःखपूर्ण कथाएं सुनते माये हैं जो हिमालय की कन्दरामों में कई वर्ष समाधिस्थ रहने पर भी सफलता न प्राप्त कर सके बल्कि पहले से अधिक उच्छृखल, घमण्डी, कामुक तथा अभिमानी बन कर वहां से लौटे । यह उन मनुष्यों की दुःखद गाथा है जिन्होंने बल प्रयोग से ही अपने मन की गति का विरोध करके इसे विकृत कर दिया । यहाँ साधकों की इस संभावना के प्रति सचेत करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि मन के सब संकल्प-विकल्पों को विवेक-बुद्धि द्वारा धीरे-धीरे मिटाना चाहिए।
विवेक से अपने मन का निग्रह कर लेने पर हमें पता चलेगा कि उन्नतावस्था को पहुंचा हुआ हमारा मन निद्रा-जन्य स्थिति के किसी निष्क्रिय
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