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( १९६ ) दृष्टान्त द्वारा यह बात और स्पष्ट हो जायेगी । विविध रंग और आकार वाली बोतलों में एक ही प्रकार का पानी डालने पर हम देखेंगे कि जल एक ही है किन्तु बोतलें भिन्न भिन्न पड़ी हुई हैं। यदि हम उनके बाह्याकार से जल को नीला, पीला, लाल आदि समझने लगें तो हमारी भूल होगी। जल तो एक-समान है चाहे वे बोतलें विविध रंग की क्यों न दिखायी देती हों। इस तरह हमें अनेक वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता रहता है । उपरोक्त उदाहरण को समझ लेने पर हम सम्पूर्ण-ज्ञान तथा पदार्थ-ज्ञान में भेद जान सकेंगे।
_ विशुद्ध चेतना ही अविकारी ज्ञान है जिस कीहम कल्पना नहीं कर सकते । सब प्राणियों का एकमात्र जीवन-केन्द्र मह परम-ज्ञान है। जब हम कोई कल्पना करते हैं तो हमारे मानसिक-क्षेत्र में विक्षेप होता है और तब यह विशुद-चेतना इन मनोवृत्तियों की उपाधि ग्रहण कर लेती है । इसका यह परिणाम होता है कि हम अपने वास्तविक स्वरूप को जानने की बजाय मनोवृत्तियों से सम्बन्धित ज्ञान को ही अनुभव कर पाते हैं । दृष्ट-पदार्थों के प्रतिक्षग बदलते रहने के कारण हमारी मनोवृत्तियां भी बदलती रहती हैं। यहाँ तो वास्तविक ज्ञान को शब्दबद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। इसलिए जब हमारे मन में कोई तरंग नहीं उठती वरन् चेतना की एकमात्र सत्ता रहती है तो अविकारी सम्पूर्ण-ज्ञान स्वयं प्रतिबिम्बित हो जाता है।
साधारण रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञान-बिम्ब बाहिर निकल कर दृष्ट-वस्तु को ढकने के बाद उसमें प्रतिबिम्बित होता है। उस समय हम यह कहते हैं कि 'हमें उस वस्तु का ज्ञान है ।' जब मेरी चेतन-शक्ति एक पुष्प को देखने के लिए बहिर्मुखी होती है उस क्षण वह पुष्प मेरी ज्ञान-परिधि से बाहिर नहीं रहता । वास्तव में मेरी चेतना उसे ढाँप लेती है । उसे जानने पर ही मैं कहने लगता हूँ कि मुझे उस (पुष्प) का ज्ञान हो गया है । उस समय बाहिर दिखायी देने वाले पुष्प और तत्सम्बन्धी मेरे ज्ञान में कोई पृथकता नहीं रहती । वस्तुतः वह पुष्प ही मेरे ज्ञान का स्वरूप धारण कर लेता है । यह अनुभूति क्षणिक होती है जिससे में इस रहस्य को न जानकर इस वास्तविक ज्ञान से वंचित रहता हूँ।
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