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( १९७ )
अमनत्व) । यही परमात्म-तत्त्व है । इस परमोच्च स्तर से संसार दृष्टिगोचर नहीं हो सकता अर्थात् इसके नानात्व का ज्ञान नहीं रहता।
हम पहले यह देख चुके हैं कि 'योग' का ध्येय मन का उन्नयन करना है। इस तरह सभी आध्यात्मिक साधनों का एकमात्र उद्देश्य इस (अमनत्व) की अवस्था को प्राप्त करना है ।
चंचल-मन एवं बुद्धि के उपकरण को पूर्णतः समाप्त कर देने पर ही 'मर्त्य' अमरत्व को प्राप्त करता है । मन का अस्तित्व खो देने पर ही 'पुरुषो. त्तमावस्था' की प्राप्ति होती है । ऐसा सिद्ध पुरुष पदार्थमय संसार का फिर अनुभव नहीं करेगा क्योंकि उस समय विकृत-संसार को दिखाने वाला यह उपकरण (मन) उसे उपलब्ध नहीं होगा । वह तो आध्यात्मिक दृष्टि से सब कुछ देखेगा। नीचे दिये मंत्र में हमें बताया जायेगा कि किस प्रकार 'अमनीभाव' अवस्था की प्राप्ति हो सकती है।
आत्म सत्यानुबोधेन न संकल्पयते यदा । अमनस्तां तदा याति ग्राह्याभावे तदग्रहम् ॥३२॥ शुद्ध चेतन-स्वरूप 'आत्म-तत्त्व' को अनुभव कर लेने पर मन में कोई संकल्प-विकल्प नहीं होता । दृष्ट-पदार्थों के न होने पर मन द्वारा इनकी अनुभूति नहीं हो पाती अर्थात् मन में इनका विचार नहीं पाता ।
जो व्यक्ति विवेक-बद्धि से बाह्य संसार के नानात्व से अपना ध्यान पूरी तरह हटा लेता और अपने शरीर, मन तथा बुद्धि से सम्बन्ध विच्छेद कर लेता है वह परम-व्यक्तित्व को पूर्णतः अनुभव करने लगता है।
आत्मानुभूति को 'अमनी-भाव' क्यों कहा जाता है ? इसका कारण श्री गौड़पाद ने समझाया है । ऋषि कहते हैं कि दृष्ट-पदार्य रहने पर ही मन का अस्तित्व रह सकता है और तभी तक यह (मन) निज व्यक्तित्व को बनाये रखता है । चौथे अध्याय में इस युक्ति को विस्तार से बताया जायेगा; इस समय हमारे लिए इतना समझना पर्याप्त होगा कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों का एकीकरण -विन्दु ही 'मन' है । यदि हमारी ज्ञानेन्द्रियों की सत्ता
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