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( १९५ )
माया से किसी को जन्म नहीं दे सकता । क्या कभी किसी बाँझ स्त्री को यथार्थतः या मंत्र-तंत्र से पुत्र की उत्पत्ति हो सकती है ?
इस तरह हमें पता चला कि 'सत्' अथवा 'असत्' परम तत्त्व से नानात्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती । जब किसी वस्तु का कोई कारण ही नहीं तो भला उससे कार्य कैसे हो सकता है ।
यथा स्वप्नं द्वया भासं स्पन्दते मायया मनः । तथा जाग्रद् द्वयाभासं स्पन्दते मायया मनः ॥२६॥
जिस प्रकार स्वप्न में माया के कारण मन अनेक रूप धर लेता है वैसे ही जाग्रतावस्था में माया से चलायमान होकर यह मन विविध पदार्थों वाले जगत को प्रकट करता है ।
जिस तरह स्वप्न देखते हुए मन में विक्षेप आने पर मिथ्या स्वप्न- जगत की सृष्टि होती है और इससे संपर्क स्थापित करके स्पप्न-द्रष्टा इसको वास्तविक अनुभव करता है वैसे ही जाग्रतावस्था में हमारा चंचल मन मिथ्या बाह्यसंसार की अनेकता को अनुभव करता हुआ इसे यथार्थ मान बैठता है ।
श्रद्वयं च द्वयाभासं मनः स्वप्ने न संशयः । अद्वयं च द्वयाभासं तथा जाग्रन्न संशय ॥३०॥
इस बात में कोई सन्देह नहीं कि एकाकी मन स्वप्न में अनेकता में विभक्त होता प्रतीत होता है । ऐसे ही अद्वैत तत्त्व जाग्रतावस्था में पदार्थमय संसार का रूप धरता दिखायी देता है ।
नाना पदार्थों वाले इस संसार की दार्शनिक रूप से व्याख्या का तार्किक उपसंहार इस प्रकार किया जा सकता है कि यह हमारे मन के कारण ही दृष्टिगोचर होता रहता है। जिस प्रकार स्वप्नावस्था में यह मन ही विविध पदार्थों का रूप धर लेता है वैसे जाग्रतावस्था में भी इस मन का बाह्य-संसार में प्रतिबिम्ब पड़ता रहता है ।
स्वप्न-जगत् के शिकारो तथा शिकार, द्रष्टा और दृष्ट-पदार्थ (जैसे पृथ्वी, स्वप्नद्रष्टा का शरीर जो इधर उधर घूमता रहता है) केबल मात्र स्वप्न-द्रष्टा
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