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( १६३ ) 'बृहदारण्यकोपनिषद्' में इस सुविख्यात भाव को प्रकट किया गया है कि आत्मा को अपवाद रूप से 'नेति, नेति' कह कर बताया जा सकता है। हम देख चुके हैं कि 'माण्डूक्योपनिषद्' में तुरीयावस्था की परिभाषा देते हुए ऋषि ने इसी साधन को सन्तोषजनक ढंग से अपनाया है ।
सर्वशक्तिमान् परमात्मा की अनुभूति का परिचय देने का एकमात्र उपाय इसे नकारात्मक भाषा में प्रकट करना है क्योंकि यह अनादि-शक्ति बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं । इस परिस्थिति में हमारी सांसारिक भाषा अपने दैनिक अनुभवों की सीमा से परे जाने में असमर्थ होती है जिससे 'अद्वैत' मात्मा की अनुभूति को निश्चित भाषा में सीमा-बद्ध करना एक असम्भव बात है । संसार के नानात्व का अपवाद ही वास्तविकता को सिद्ध करता है। रज्जु के वास्तविक रूप को दिखाने का यही उपाय है कि हम उसमें सर्प के अस्तित्व को असत्य सिद्ध कर दें। ऐसे सभी मामलों में, जहाँ किसी वस्तु का पारोप किया जाता है, मिथ्यात्व का अन्त होना ज्ञान की अनुभूति का सूचक होता है । इस भ्रान्ति को दूर करने का उपाय इस 'आरोप' भाव को मिथ्या सिद्ध करना है।
इस तरह स्थूल संसार सूक्ष्म संसार तथा विचार-जगत का अपवाद करने पर ही इनके परे व्याप्त रहने वाली इस अद्वितीय शक्ति को जिससे किसी प्रत्यक्ष जगत की उत्पत्ति नहीं हो सकती जाना जा सकता है ।
सतो हि मायया जन्म युज्यते न तु तत्त्वतः।
तत्त्वतो जायते यस्य जातं तस्य हि जायते ॥२७॥ माया के कारण शाश्वत तत्त्व जन्म लेता प्रतीत होता है-- यह धारणा वास्तविकता के दृष्टिकोण से मान्य नहीं। जो इसके जन्म लेन में विश्वास रखते हैं उनका दावा है कि, जिसका जन्म हो चुका है, वह अनिश्चित काल तक जन्म लेता रहेगा।
पिछले मन्त्र में श्री गौड़पाद ने हमें बताया था कि उपनिषदों ने मुख्यतः अद्वैत आत्मा का दिग्दर्शन कराया है और इस क्रम में 'श्रति' ने भो
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