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( १६१ )
तत्त्व से पदार्थमय संसार की उत्पत्ति हुई तो इसे 'गौण' मानना चाहिए और इसका निष्कर्ष निकाल कर ही इस प्रकार की घोषणाएं की जाएं-"जैसे परम-तत्त्व सर्वथा अविकारी है।" "दष्ट-ससार वस्तुतः 'सत्य' में आरोपमात्र है।"--उन्हें अन्तिम रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए। आने वाले मन्त्र में दो शास्त्रोक्तियों की व्याख्या की गयी है।
नेहनानेति चाम्नायादिन्द्रो मायाभिरित्यपि ।
प्रजायमानो बहुधा मायया जायते तु सः ॥२४॥ यद्यपि शास्त्रों में ऐसी उक्तियाँ मिलती हैं-"इसमें कोई नानात्व नहीं ।", "माया आदि के द्वारा इन्द्र'--तथापि हम इस (सत्य) से भली भली भाँति परिचित हैं कि 'आत्मा' अजात होते हए भी 'माया' के कारण विविध नाम-रूप में विभक्त प्रतीत होता है। ___ इस मंत्र के पूर्वार्द्ध में 'बृहदारण्यक' उपनिषद् की दो महत्वपूर्ण उक्तियों का उल्लेख किया गया है । श्री गौड़पाद ने इस बृहद् ग्रन्थ का बहुधा उपयोग किया है।
_ 'बृहदारण्यकोपनिषद्' की पहली उक्ति में निश्चित रूप से पदार्थमय संसार का खण्डन किया गया है किन्तु दूसरी उक्ति में दृष्ट-संसार की व्याख्या की गयी है । महर्षि याज्ञवल्क्य कहते है कि इन्द्र की 'माया' के कारण यह सब ( प्रत्यक्ष संसार ) दृष्टिगोचर होता है । इस कथन पर हम जितना अधिक विचार करेंगे उतना ही इसका रहस्य-पूर्ण अर्थ हमारी समझ में पायेगा।
इन्द्र को 'मन' का अधिष्ठात-देव माना जाता है। दूसरे धर्म-ग्रन्थों में भी मन के लिए 'इन्द्र' शब्द का प्रयोग किया गया है । (जैसे 'केनोपनिषद्')। इसलिए दार्शनिक ढंग से इन्द्र को प्रत्यक्ष संसार का स्रष्टा कहने का यह अर्थ है कि यह विचार हमारे मन की भ्रान्ति का द्योतक है । मानसिक स्तर से जब हम बाह्य संमार को देखते हैं तो नाम-रूप जगत हमारे दृष्टिगोचर होता है; किन्तु जब हम परमात्म-तत्व के सर्वोत्कृष्ट स्थान से बाहिर दृष्टि डालते हैं तो हमें 'नानात्व का कोई ज्ञान नहीं होता।"
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