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इन दोनों उक्तियों का समंजन करने पर श्री गौड़पाद ने यहाँ इस विचार की पुष्टि की है कि सत्य-सनातन 'अजात' होने पर भी अनेकत्व को धारण किये हुए दिखायी देता है।
सम्भूतेरपवादाच्च सम्भवः प्रतिषिद्यते।
को न्वेनं जनयेदिति कारणं प्रतिशिद्यते ॥२५॥ ___ सम्भूति (सृष्टि) को न मानने से इस (उत्पति) का खण्डन होता है । 'प्रात्मा में कारणत्व को इस उक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता-इसे कौन जन्म देने के योग्य बना सकता है ?
वेदान्त-साहित्य में 'सृष्टि' के विचार को मिथ्या सिद्ध करने के उद्देश्य से बहया शास्त्रों की उक्तियों का उल्लेख किया जाता है । इस भावना को मिथ्या सिद्ध करते हुए 'प्रात्मा' से जन्म होने की भ्रान्ति का भी मलोच्छेदन कर दिया गया है । आत्म-तत्व में न कोई परिवर्तन होता है और न ही इसके अपने स्वरूप में कोई विकार आता है ।
'अजातवाद' को 'बृहदारण्यक उपनिषद्' में बड़े अच्छे ढंग से समझाया गया है। वहाँ ऋषि ने कहा है-"इसे जन्म देने के योग्य बनाने वाला कौन है ?" इससे यह समझना चाहिए कि कोई ऐसी शक्ति नहीं जो परम-तत्त्व को जन्म देने के योग्य बनाए । इस भाव को प्रकट करते हुए 'माता' श्रुति सनातन-तत्त्व को न तो भौतिक स्तर पर प्राने देती है और न ही इसे पदार्थसंसार की उत्पत्ति का कारण मानती है । संक्षेप में सर्व-शक्तिमान में कारणत्व की भावना करना स्वीकार्य नहीं ।
स एष नेति नेतीति व्याख्यातं निह्न ते यतः ।
सर्वमग्राह्यभावेन हेतुनाजं प्रकाशते ॥२६॥ ग्राह्यमान न होने के कारण शास्त्र 'आत्मा' को नेति, नेति (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कह कर पुकारते हैं । इस तरह आत्मा को प्राप्त करने के लिए जिन 'द्वैत' साधनों की व्याख्या की गयी है इन सब का खण्डन हो जाता है । इससे 'आत्मा' प्रजात सिद्ध हुआ न कि नाना रूप वाला।
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