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( १६० ) इस बात को नहीं मानेगा कि अधिकारी कहलाने वाले तत्व में किसी प्रकार का विकार अाना सम्भव हो सकता है ।
भूततोऽभूततो वाऽपि सृज्यमाने समा श्रुतिः ।
निश्चितं युक्तियुक्तं च यत्तद्भवति नेतरम् ॥२३॥ 'श्रुति' द्वारा बलपूर्वक कहा गया है कि सृष्टि वास्तविक एवं अवास्तविक है। जिस ('सत्य') को श्रुति ने घोषित किया है और जो तर्क के आधार पर स्वीकार्य है वही 'सत्य' सर्वमान्य है और कुछ नहीं।
यहाँ वेदान्त-तत्त्व का पुनः प्रतिपादन किया गया है । यद्यपि वेदान्तवादी शास्त्र-विहित तथ्य को प्रमाण मानते हैं तथापि वे किसी बात में अन्धाधुन्ध विश्वास नहीं रखते । महर्षियों के सहज ज्ञान में इन्हें बहुत श्रद्धा है और वे महत्तर 'तथ्य' को प्रादरपूर्वक स्वीकार करने के लिए सदा कटिबद्ध रहते हैं। ऋषियों की अनुभूति का विधिवत मानने वाले इन वेदान्तवादियों को उनके तर्क-युक्त विचार सदा शिरोधार्य होते है।
किन्तु यदि कोई ऋषि हंसी में कुछ कह दे तो वेदान्ती इसे परम-तत्व स्वीकार करने की मुर्खता कभी नहीं कर सकता । इसलिए भगवान शंकराचार्य कहते हैं कि एक वेदान्ती 'माता श्रुति' के वचनों को किसी अवस्था में मानने के लिए तत्पर न होगा जब तक वह उनकी यथार्थता को तर्क की कसौटी पर न परख ले।
यदि श्रुति में कहीं यह लिखा हुआ पाया जाय कि 'अग्नि ठण्डी है' तो कोई वेदान्ती इस उक्ति को इस कारण स्वीकार नहीं करेगा कि ये शब्द किसी ऋषि द्वारा कहे गये हैं । यदि कोई महर्षि अपने अनुभव के परिणामस्वरूप ऐसी बातें कहता है जो पारस्परिक विराध रखता हैं तो ये (बातें) इसलिए मान्य नहीं समझी जायेगी कि ये उस महषि के मख से निकली है। इन्हें युक्ति एवं तर्क के धर्म-काँटे पर तोलना नितान्त आवश्यक है । यदि शास्त्रों में इस प्रकार की बातें कहीं मिल जायें तो उनके वास्तविक अर्थ को न मान कर उनके अन्तनिहित भाव को समझना चाहिए ।
यदि उपनिषद् के 'प्रादि' भाग में कहीं यह कहा गया हो कि बनातक
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