________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १८८ ) 'विकारी' होजाय तो फिर हम किस अविकारी तत्त्व को प्राप्त करने म प्रयत्नशील होंगे? इस हास्यप्रद स्थिति पर एक औसत बुद्धि वाला व्यक्ति भी गम्भीरता से विचार करना न चाहेगा क्योंकि यह धारणा स्वतः अमान्य है।
पदार्थमय संसार को मिथ्या सिद्ध करने के उद्देश्य से श्री गौड़पाद न यह दूसरी युक्ति दी है क्योंकि स्वानुभूत परम-ज्ञान की दृष्टि में ऋषि को यह सब मन का खेल ही दिखायी देता है। 'माया' के अध्याय में दृष्ट-संसार के विषय में महानाचार्य ने यह व्याख्या पहली बार दी है । वहाँ यह कहा गया है कि "स्वयं प्रकाशमान 'आत्मा' निज माया-शक्ति के द्वारा अपने-आप में अनेकता की अनुभूति करता है।" इस मंत्र में इस क्रम में एक और व्याख्या दी गयी है जिसके अनुसार एक-तत्त्व के अनेक नाम-रूप में विभक्त होने से प्रतीति केवल हमारे मन की विविध वासनाओं के कारण होती रहती है । वास्तव में इसमें कोई तथ्य नहीं ।
अजातस्यैव भावस्य जातिमिच्छन्ति वादिनः।
अजातो ह्यमृतो भावो मर्त्यतां कथमेष्यति ॥२०॥
द्वैतवादी कहते हैं कि अजात एवं अविकारी सनातन 'प्रात्मा' में विकार आजाता है । जो तत्त्व स्वयं अविकारी तथा अविनाशी है भला वह किस प्रकार मर्त्य हो सकता है ?
पिछले मंत्र के भाव को जारी रखते हुए श्री गौड़पाद यहाँ उन द्वैतवादियों की कड़ी आलोचना करते हैं जो कारणत्व के सिद्धान्त में दृढ़ विश्वास रखते हैं। अगले अध्याय में अधिक तीव्रता से इस सिद्धान्त का युक्ति-पूर्ण खण्ठन किया जायेगा । वहाँ नीचे दिये दो मंत्रों की पुनरावृत्ति की जायेगी।
द्वैतवादियों की यह धारणा कि अविकारी 'आत्मा' में 'विकार' आता है एक काट्य प्रमाण है । श्री गौड़पाद इसे इस प्रश्न द्वारा प्रकट करते हैं-'अमृत-तत्त्व' किस तरह 'मर्त्य' हो सकता है ? फिर भी कई अदूरदर्शी व्यक्ति, जो विवेक-पूर्ण दृष्टि नहीं रखते, कह सकते हैं कि- 'क्यों नहीं ?'
For Private and Personal Use Only