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( १८६ ) मात्र है । द्वैतवादी द्वैतभाव को ही सर्वज्ञ परमात्मा तथा सृष्टि दोनों में देखते हैं । इसलिए 'अद्वैतवाद' वह दर्शन-तत्त्व है जो द्वैतवाद से कोई मतभेद नहीं रखता ।
श्री गौड़पाद के तणीर में जिन व्यंग्यात्मक उक्तियों का साधारण एवं मर्म-स्पर्शी शब्दों में प्रतिपादन किया है उस चातुर्य के सामने स्टील तथा एडीसन जैसे विद्वान् भी फीके पड़ जाते हैं । यहाँ इस आलोचक ऋषि ने उन कारणों को बताया है जिनसे वेदान्त-विशारद द्वैतवाद से, चाहे वह अद्वैतवाद से वैपरीत्य रखता है, कोई मतभेद नहीं रखते । इस बात को इस प्रकार समझाया गया है : द्वैतवादी कहते हैं कि अनेकता वाले संसार की उत्पत्ति अनेकत्व से हुई। उनका वास्तविक तत्त्व अनेकता पर आश्रित है । वेदान्तवादियों का मत है कि सनातन-तत्त्व एक ही है और इससे किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हुई।
श्री गौड़पाद कहते हैं कि इन द्वैतवादियों से, जो पदार्थमय-संसार का प्रादि-स्रोत अनेकत्व को मानते हैं. हमारा कोई मतभेद नहीं । विविधता से विविधता की ही सष्टि हो सकती है, किन्तु अनेकता वाला तत्त्व सनातन तथा अविकारी नहीं हो सकता। अतः हमें इन द्वैतवादियों की इस धारणा पर कोई आपत्ति नहीं कि पदार्थमय-संसार की उत्पत्ति वास्तव में विविधता तथा विकार रखने वाले तत्त्व से हई और नश्वर तथा ससीम से ही सीमाबद्ध संसार का उद्भव हो सकता है ।
इन दो (द्वैत तथा अद्वैत) विचार-धाराओं में यदि कोई विषमता पायी जाती है तो यह है कि द्वैतवादी अनेकता वाले तत्त्व को सनातन मानते हैं । मर्यादित पदार्थ असीम नहीं हो सकता। इस परिस्थिति में इन दोनों विचारों में कोई अन्तर नहीं पाया जाता-इस बात को श्री गौड़पाद ने यहाँ समझाया है। ऋषि के शब्दों में जो व्यंग्य मिलता है उसकी श्री शंकराचार्य के भाष्य में पूरी पालोचना की गयी है । भगवान् कहते हैं कि-"यह बात तो उस व्यक्ति की भाँति हुई जो एक चुस्त हाथी पर सवार हो कर निर्भीकता से सड़क पर खड़े एक पागल मनुष्य की प्रोर आगे बढ़ता है और वह पागल चिल्ला कर उससे कहता है कि मैं भी हाथी पर सवार हूँ; तुम अपने हाथी पर बढ़े चलो।" वेदान्ती सनातन-तत्त्व से सम्बन्धित अपने सिद्धान्त मे दृढ़ आस्था
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