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( १८७ ) रखता है; इसलिए वह द्वैतवादी को किसी प्रकार भयभीत नहीं करना चाहता । प्रात्मानुभव वाले परिपूर्ण अद्वितीय पुरुष का यह कीर्ति-स्तम्भ है ।
मायया भिद्यते ।तन्नान्यथाऽजं कथंचन ।
तत्त्वतो भिद्यमाने हि मर्त्यताममृतं व्रजेत् ॥१६॥
अविकारी एवं अद्वैत 'ब्रह्म' अजन्मा है किन्तु माया के कार यह विकारमय प्रतीत होता है । वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि यदि 'ब्रह्म' में विकार आजाए तो यह नित्य न रह कर मर्त्य हो जायेगा।
यदि सनातन-तत्त्व अद्वैत है तो फिर हमें यह नाम-रूप संसार क्यों दिखायी देता है ? वेदान्त-शास्त्र कहता है कि पदार्थमय संसार केवल हमारे मन की भ्रांति के कारण दिखायी देता है। वास्तव में एकमात्र एवं समानरूप तत्त्व दृष्ट-संसार में विभक्त नहीं हो सकता।
___ 'अज' शब्द विशेष महत्त्व रखता है । जिसका जन्म हुआ है वह निस्सन्देह नाशमान है क्योंकि 'जन्म' स्वत: एक विकृत रूप है । अविकारी तत्त्व में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता । परिवर्तन द्वारा ही विकार क्रियमाण होता है । खम्भा अपने स्वरूप को बदल कर कोई अन्य रूप धारण नहीं कर सकता; फिर भी सांझ के अन्धेरे में हमें कई बार उसमें 'भत' की भ्रान्ति होने लगती है। वह 'भूत' खम्भ का विकृत रूप नहीं है; अतः उसे हम अपने मन की भ्रान्ति ही कह सकते हैं । ऐसे ही सनातन-तत्त्व सर्व-व्यापक एवं विशद्ध चेतना है। फिर भी हमें उसमें नानात्व की झलक दिखायी देती है । यह वास्तविकता में मारोपमात्र नहीं तो और क्या है ?
यदि हम यह धारणा कर बैठे कि परमात्म-तत्त्व से इस संसार की उत्पत्ति हुई तब हमें अनेक युक्तियों द्वारा इस तथ्य को सिद्ध करना पड़ेगा जो कि एक असंभव बात होगी । इस प्रयास म हम दूसरों को हँसी करने का ही अवसर देंगे क्योंकि इस प्रकार यह 'प्रज्ञात-तत्त्व' मर्त्य-रूप धारण कर लेगा । दूध जम जाने पर दही में बदल जाता है । अब दही से दूध को पुनः प्रलग करना एक असंभव बात हो जाती है । इस प्रकार यदि सनातन-तत्त्व
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