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तीसरा अध्याय
अद्वैत प्रकरण पिछले दो अध्यायों में इस ग्रन्थ के रचयिता ने अपने भावों की स्पष्ट प्रतिच्छाया दिखाई है । पहले अध्याय में महान् अद्वैत-तत्त्व की व्याख्या शास्त्र के आधार पर की गई है जब कि दूसरे अध्याय में युक्तियों द्वारा पदार्थमय संसार को मिथ्या सिद्ध किया गया है। वर्तमान अध्याय में श्री गौड़पाद तर्क एवं युक्ति द्वारा हमें इस तथ्य को समझाएँगे कि इस पदार्थमय संसार का प्राधार 'अद्वैत-सत्ता' ही है और यही इस (संमार) का वास्तविक स्वरूप है ।
__ इस तरह हम देखते हैं कि दूसरे अध्याय में अनेकत्व को मिथ्या सिद्ध किया गया है । तीसरे अध्याय का मुख्य विषय तर्क तथा युक्ति के द्वारा अद्वैततत्त्व की यथार्थता सिद्ध करना है।
यहाँ श्री गौड़पद ने अद्वैत-तत्त्व को अनादि एवं अनन्त सिद्ध करने का प्रयास किया है और इस परम-सत्य की यथार्थता के समर्थन में ऋषि ने अनेक शास्त्रोक्तियों का उल्लेख किया है। निर्देश-ग्रन्थ होने के कारण प्रस्तुत अध्याय में भी पर्याप्त जानकारी दी गई है जो हमारे दैनिक अभ्यास (ध्यान) में विशेष रूप से सहायक होगी।
यहाँ एक विचित्र उपाय को अपनाया गया है जो वेदान्त-साहित्य में अद्वितीय है; इस से प्रात्मानुभूति संभव है । इस उपाय को 'अस्पर्श योग' कहा गया है । यह शब्द (अस्पर्श योग) बौद्धों के साहित्य से लिया गया है-यह धारणा उन व्यक्तियों की है जो श्री गौड़पाद में बौद्ध मत की प्रतिच्छाया देखने आये हैं। इस विचार से वेदान्तवादी सहमत नहीं हैं। जब हम इस प्रसंग की व्याख्या करेंगे तब यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जायेगी।
इस अध्याय के अन्त में श्री गौड़पाद के अजातवाद की तुमुल घोषणा की गई है । अन्तिम मंत्र में 'कारिका' के सम्पूर्ण भाव का संक्षिप्त विवरण दिया गया है । उन दो पंक्तियों में ऋषि ने कहा है कि-'किसी जीव का कभी
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