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का त्याग कर के वह प्रात्म-तत्त्व से एकीकरण नहीं कर पाता।
जब उपासक आग्रह-पूर्वक यह कहते हैं कि परमात्म-तत्त्व 'अजात' है तब उनकी स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। यदि परमात्मा शाश्वत, विशुद्ध और विकार-रहित है तो वह पदार्थ-संसार में किस प्रकार व्यक्त हो सकता है और साथ ही निज सहज-प्रकृति के अनुसार 'प्रजात' कहा जा सकता है। यदि यह मान लिया जाय कि परमात्मा ने अपने आपमें से संसार की सष्टि की है तो यह (सृष्टि) निश्चय से उस का आवश्यक अंग होगा। इस परिस्थिति में यह सोचना कि भगवान् की आराधना तथा उपासना ही हमारी यात्रा की अन्तिम मंज़िल है एक अक्षम्य भूल होगी क्योंकि यह धारणा इसलिए होती है कि "मैं (साधक) उस शक्ति-पुंज (भगवान्) का अंश हूँ।" इस विचार को पुष्टि देने वाला साधक अधिक उन्नति नहीं कर पाता और न ही वह किसी प्रकार विकसित हो सकता है । इसलिए इस विचार की प्रस्तुत अध्याय के प्रारंभ में ही निन्दा की गयी है ।
__इस मंत्र में 'उपासना' शब्द का 'भक्ति' के अर्थ में उपयोग किया गया है । 'उपासना' शब्द का वेदों में प्रयोग हुआ है और समस्त वेद-साहित्य में 'भक्ति' शब्द कहीं नहीं मिलता । इस (भक्ति) शब्द का सर्व-प्रथम प्रयोग महर्षि वेदव्यास ने पुराणों में किया ।
___ 'उपासना' में हमारे मन और बुद्धि में पारस्परिक समंजन तथा सन्तुलन होना आवश्यक है । 'उपासना' वह साधन है जिसके द्वारा उपासक अपने दृष्टिकोण का इतना विस्तार करता है कि उसकी परिधि में समस्त विश्व आ जाता है । यह साधन उस समय उपलब्ध था जब जीवन अधिक शान्ति-पूर्ण था और मनुष्य प्रकृति से इतनी अधिक मात्रा में कोई आशा नहीं रखता था । जिस प्रकार किसी देश के साहित्य और कला का समुचित विकास शान्ति एवं बाहुल्य के युग में संभव है वैसे ही 'उपासना' की सहायता से भाध्यात्मिक विकास 'प्रकृति' की ऐश्वर्यशाली मुस्कान से ही हो सकता है क्योंकि प्रकृति का वैभव ही मनुष्यमात्र का यथार्थ कल्याण कर सकता है ।
आजकल पृथ्वी बढ़ती हुई जन-संख्या के भार से दबी जा रही है। भूमि के गर्भ में स्थित विविध आवश्यक पदार्थों का ह्रास होने से इसकी उपजाऊ-शक्ति क्षीण होती जा रही है और पर्वत शृंखलाओं को काट-काट कर
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