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( १७१ ) एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से इस कारण भिन्न दिखायी देता है, उनके मन तथा विवेक-शक्ति में असामनता पायी जाती है। उनकी कार्यकुशलता में हमें अन्तर जान पड़ता है । यदि हम मन तथा बुद्धि को एक बार लांघने में सफल हो जाएँ तो परमात्म-सत्ता की अनुभूति हमें समान रूप से होने लगेगी। यह घटाकाश अपनी सीमाओं से मुक्त हो जाए तो व्यापकआकाश से इसकी भिन्नता तुरन्त समाप्त हो जायेगी । ऐसे ही शरीर, मन तथा बुद्धि के कल्पित बन्धनों को तोड़ते ही यह विशुद्ध चेतना अपने वास्तविक रूप को जान लेतो है । परिपूर्ण ज्ञान में संसार, उसके भिन्न भिन्न पदार्थ, तथा काल, अन्तर, कारण, अनेकता के मिथ्या विचारों को जन्म देने वाले विविध अनुभवों के लिए कोई स्थान नहीं है ।
अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि हमें इस बात का किस प्रकार पता चलता है । क्या यह किसी दार्शनिक कवि के मन की उपज है अथवा एक ऐसे शक्तिहीन व्यक्ति की कोरो कल्पना जो संसार की यथार्थता को जानने का साहस नहीं रखता ? इस शंका का समाधान करने के लिए श्री गौड़पाद ने 'नर्णय' शब्द का प्रयोग किया है । वेदान्त के कड़े अनुशासन में रह कर अपने वास्तविक स्वरूप को जानने वाले संसार के सभी महान्द्रष्टाओं ने इस निर्णय' की पुष्टि की है ।
नाऽऽकाशस्य घटाकाशो विकारावयवौ यथा ।
नैवाऽऽत्मनः सदा जीवो विकारावयवौ तथा ॥७॥ घटाकाश सर्व-व्यापक आकाश का विकृत रूप नहीं और न ही इस का अंश है । एस ही जीव 'आत्मा' से विकसित नहीं हुआ और न ही यह परम-सत्ता का अंश है ।
परमात्म तत्त्व समान एवं सर्व-व्यापक है। इस कारण इसमें किसी प्रकार का विकार नहीं हो सकता। 'जीव' इस सनातन-तत्त्व का अवयव नहीं । यह कहना भी ठीक नहीं है कि इसमें परिवर्तन होने से विविध जीवों की उत्पत्ति हुई । हमें यह नियम भली-भाँति विदित है कि किसी वस्तु का रूप बदलने का अर्थ उसके पहले आकार का नष्ट होना एवं दूसरा रूप धारण करना है । जब दूध जम कर दही बनता है तो दूध अपने रूप को
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