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( १८२ ) है । वस्तुतः नानात्व की कोई सत्ता नहीं ।
वेदान्त के विविध भागों में साधकों को प्रोत्साहन देने के लिए कई बातें कही गयी हैं-यदि इस बात को मान लिया जाए तो इन उपनिषदों में कहींकहीं शान-मार्ग की व्याख्या करते हुए संसार के नानात्व का निरूपण क्यों किया गया है ? उपनिषद्-साहित्य से ऐसे अनेक उदाहरण उद्धत किए जा सकते हैं जिनके द्वारा यह बताया गया है कि परम-तत्त्व से पदार्थमय संसार की उत्पत्ति कैसे हुई । इसे कई उपमाओं द्वारा समझाया गया है जैसे “मिट्टी से बर्तन," धातु-विशेष से “विविध प्राभूषण", "अग्नि से चिंगारियाँ"-प्रादि । ___'बृहदारण्यक' उपनिषद् में ये उदाहरण दिए गए हैं । वास्तव में सभी उपनिषद् अन्त में विविधता का विरोध करके अद्वैत-तत्त्व की सत्ता को ही यथार्थ मानते हैं। अतः हमें यह जान लेना चाहिए कि यह व्याख्या शिष्य का मनोद्वेग शान्त करने तथा उसके मिथ्या संस्कारों का मलोच्छेद करने के विचार से ही दी गयी है । गुरु इस उपाय द्वारा अपनी पाढ़ी को लाभ पहुँचा सकता है।
परम ज्ञान के उत्तुंग शिखर पर पहुँचने के लिए साधक को सत्यसनातन के आभासित नानात्व से परिचित होना जरूरी है । 'सप्रपंचत्व' के द्वारा 'निष्प्रपंचत्व' को प्राप्त किया जाता है । वेदान्त का यह नारा है कि "संसार से हो कर ही हम अतीत की प्राप्ति कर सकते हैं।" नाम-रूप संसार के कारण और कार्य को वर्णन करने से मन एवं बुद्धि की उत्सुकता को शान्त करना संभव है और बाद में ये दोनों ध्यान के योग्य सुसंस्कृत उपकरण बन सकते हैं। इस प्रकार एक सन्देह का दूसरे परिष्कृत सन्देह द्वारा निराकरण किया जाता है । स्वप्न में दिखायी देने वाला सिंह वास्तविक न होने पर भी हमें स्वप्न से जगा कर अपने मूर्खतापूर्ण भय से मुक्त कर सकता है ।
अतः संसार की सष्टि की व्याख्या करने का उद्देश्य सामान्यत: हमारे मन तथा बद्धि को इनके अनकल भोजन देना है। इनके विक्षेप को शान्त करने के लिए यह 'लोरी' सुनायो जाती है । उच्छखल बुद्धि को वश में लामे के लिए यह एकमात्र नारा है । इसी उपाय से वेदान्त के विद्यार्थी को दुःख की सीमा तक पहुँचाया जाता है। बाद में उसे परम-सत्य के अद्वितीय क्षेत्र में बिना किसी कष्ट के पहुँचाया जाता है।
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