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( १८१ ) तर्क तथा अन्य पाठ्य-शाखा और विज्ञान-सम्बंधी सिद्धान्तों को दो प्रकार से जाना जाता है-मुख्य तथा गौरण । इस विचार से यहाँ वेदों के प्रारम्भिक भाग को, जिनका शिष्य को इस मार्ग पर चलने का प्रोत्साहन देने के लिए प्रतिपादन किया गया है, 'गौण' कहा गया है । वेदान्त अर्थात् वेदों के अंतिम भाग में इस सनातन-तत्व को अनुभव करने का मार्ग बताया गया है। अतः इसे 'मुख्य' कहा जाता है ।।
वेदों के प्रारम्भिक भाग को, जहाँ सृष्टि की व्याख्या की गयी है, 'गौण' सिद्ध करने के बाद ऋषि ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि इस (प्रारम्भिक) भाग को ही 'मुख्य' मान लेना मूर्खता के बिना और कुछ नहीं हो सकता क्योंकि आगे के भाग में दिये गये विचार इस भाव से सर्वथा प्रतिकूल हैं । न्याय-शास्त्र में उस भाग को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाता है जिसमें किसी विचार को निष्कर्ष रूप से समझाया गया हो।
इस परिणाम तक पहुँचने के लिए हमें विविध युक्तियाँ देनी होंगी । जैसा हम कह चुके हैं, वर्तमान युग के न्याय-शास्त्र में नैय्यायिक के स्वप्न को ही विचित्र ढंग से वर्णन किया जाता है । प्राचीन काल के हिन्दू दर्शनाचार्य व्याख्या करने के अतिरिक्त अपने शिष्यों के सामने उस मार्ग को भी स्पष्ट रूप से रखा करते थे जिस पर वे (शिष्य) चल सकते थे । हिन्दू ऋषियों ने 'न्याय' को सिद्धान्त मात्र नहीं समझा बल्कि उसे व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाने के योग्य भी जाना । इस कारण धर्म-ग्रन्थों के प्रारंभ में उन्होंने अपने शिष्यों को सरल एवं कृत्रिम भाषा में समझाने का प्रयास किया क्योंकि वे उसी भाषा को समझ सकते थे। धीरे-धीरे उसे वास्तविकता के उच्च स्तर पर ले जाया जाता है और वहाँ से वह विशुद्ध चेतना की अनुपम झांकी ले सकता है।
मृल्लो हविस्फुलिङ्गाद्यैः सृष्टिर्याचोदिताऽन्यथा ।
उपायः सोऽवताराय नास्ति भेदः कथञ्चन ॥१५॥ मिट्टी, लोहे, चिंगारियों के उदाहरणों द्वारा शास्त्रीय उक्तियां देकर सृष्टि अथवा इसके विपरीत भाव को समझाने का वास्तविक अभिप्राय 'जीवात्मा' तथा 'आत्मा' में एकरूपता दिखाना
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