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( १८० )
करने के साथ-साथ श्रद्वैत ब्रह्म का बलपूर्वक समर्थन किया गया है । इसलिए श्री गौड़पाद आग्रह पूर्वक कहते हैं कि अद्वैत परम सत्ता ही सर्वमान्य है ।
जीवात्मनो पृथक्त्वम् यत् प्रागुत्पत्त ेः प्रकीर्तितम् । भविष्यदवत्या गौणं तन्मुख्यत्वं हि न युज्यते ॥ १४ ॥
वेदों के कर्म-काण्ड में सृष्टि को वर्णन करते हुए 'जीव' तथा 'आत्मा' की जो पृथकता दिखायी गयी है उसे एक ही माना जा सकता है क्योंकि इस (भाग) में आगे आने वाले वृत्तान्त का दिग्दर्शन कराया गया है । वास्तव में द्वैत से सम्बन्धित यह उक्ति कोई महत्व नहीं रखती ।
यहाँ कुछ व्यक्ति यह आपत्ति कर सकते हैं कि वेदान्त के अनुयायियों नानात्व की सर्वथा निन्दा ही की है । वेदों के कर्म काण्ड में विशेषतः कहा गया है कि पदार्थमय संसार की उत्पत्ति परम सत्ता से हुई । यज्ञानुष्ठान से सम्बन्धित सकल साहित्य जीव तथा आत्मा के पृथकत्व पर आधारित है । परमात्म-तत्त्व की व्याख्या करने वाले उपनिषदों में भी सृष्टिवाद पर प्रकाश डाला गया है । यहाँ यह आपत्ति की गयी है कि अजातवाद का शास्त्रों द्वारा समर्थन नहीं किया जाता प्रौर वेदों की कतिपय उक्तियों में भी इस विचार की पुष्टि उपलब्ध नहीं है । यहाँ इस आपत्ति का उत्तर दिया गया है । ऋषि ने कहा है कि वेदों के पूर्व भाग में निस्सन्देह 'आत्मा' तथा 'जीव' की पृथकता पर प्रकाश डाला गया है; फिर भी सच्चे साहित्य सेवी द्वारा इस विचार को इतनी महत्ता नहीं दी जानी चाहिए जितनी वेदों के अन्तिम (उपनिषद्) भाग के सिद्धान्तों को । इस ( अन्तिम ) भाग में इन दोनों को अभिन्न कहा गया है । श्री गौड़पाद की दृष्टि में कर्मकाण्ड में साधकों को आध्यात्मिक अनुष्ठान अथवा उपासना में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से यह व्याख्या की गयी है जिससे वे शनैः शनैः प्रान्तरिक समंजन प्राप्त करके मन एवं बुद्धि के उपकरणों को मनन द्वारा श्रात्मानुभूति के योग्य बना सकें। तब ही उन ( साधकों) के लिए ध्यान तथा विवेक द्वारा श्रात्म-स्वरूप को अनुभव करना संभव होगा ।
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