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( १७७ )
शक्ति की व्यापक आकाश से समानता पहले दिखायी जा चुकी है ।
अभी तक यह समझाने का प्रयत्न किया गया है कि यह पदार्थ-क्षेत्र, जिसमें विविधता दिखायी देती है, परमात्म-तत्त्व में मिथ्या प्रारोप है। इस निर्देश को सूनकर प्रायः सभी छात्र यह कहने लगेंगे कि उनके निज व्यक्तित्व के अतिरिक्त सभी दष्ट-पदार्थ मिथ्या हैं । इस मन्त्र में हमें सावधान किया गया है कि हम कहीं ऐसी धारणा न कर बैठे।
पदार्थ-संसार में उन सभी पदार्थों का समावेश है जिन्हें हम 'वह' सर्वनाम द्वारा जान सकते हैं । आत्मा के अतिरिक्त सभी-पदार्थ हमारे अनुभव में आते हैं; अतः ये पदार्थ दृष्ट हुए । इस तरह दूरस्थ पर्वत-शृंखलाएँ, वन, वृक्ष, शिला, जन्तु, पौधे ( और हमारे सिवाय सभी व्यक्ति ) आदि संसार के पदार्थ हुए ; किन्तु हमें यहाँ यह कहना है कि यह शरीर, मन और बुद्धि भी दृष्ट-पदार्थों से सम्बन्ध रखते हैं। __मनुष्य क्या है ? यह प्रकृति द्वारा प्रावेष्ठित प्राणी है। दार्शनिक रूप से मनुष्य का व्यक्तित्व उसके पाँच आवरणों से जाना जाता है । प्रकृति के स्थूल व्यक्तित्व को 'अन्नमय' कोष कहा जाता है । इससे सूक्ष्म है 'प्राणमय' कोश । इससे अधिक सूक्ष्म है 'मनोमय', 'विज्ञानमय' और 'शान्तिमय' कोश जो क्रमशः सूक्ष्मतर होते जाते हैं । अन्तिम (शान्तिम य) कोश की अनुभूति हमें प्रगाढ़ निद्रावस्था में होती है । आत्मा के इन आवरणों की सविस्तार व्याख्या तैत्तिरीयोपनिषद् में की गयी है।
___ यहाँ कोषों का उल्लेख उनकी व्याख्या करने के लिए नहीं दिया गया है बल्कि यह स्पष्ट करने के लिए कि आत्मा का आवेष्ठन करने वाले में प्रावरण भी कल्पित है। उनकी व्याख्या श्री स्वामी जी की पुस्तक 'ध्यान और जीवन' (जो श्रीमती शीला पुरी, ४ जन्तरमन्तर रोड़, नयी दिल्ली से मिल सकती है) में की गयी है। । हमारे भीतर व्याप्त प्राध्यात्मिक केन्द्र सर्वव्यापक है। इस से किसी की उत्पत्ति नहीं होती और न ही इसके अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु सदा रह सकती है । ममता-बन्धन में फंस कर हम इन व्यक्तिगत आवरणों से संपर्क स्थापित करते तथा विविध अनुभव प्राप्त करते रहते हैं । इसलिए महान्
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