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( १७५ ) सूर्य की रश्मियां समुद्र को प्रकाश देती हैं किन्तु उन पर इस (समुद्र) के तूफान अथवा चंचलता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
संघाताः स्वप्नवत्सर्वे प्रात्ममायाविजिता ।
प्राधिक्ये सर्वसाम्ये वा नोपपत्तिहि विद्यते ॥१०॥ आत्मा को पाच्छादित करने वाले अज्ञान से ही शरीर, मन और बुद्धि की उत्पत्ति होती है। इस बात को सिद्ध करने के लिए कि ये तीनों समान हैं अथवा एक दूसरे से अधिकता रखते हैं कोई मान्य प्रमाण नहीं दिया जा सकता ।
विविध अंशों का उनकी अपनी सत्ता को प्रकट करने के लिए संघात नहीं किया जा सकता । इनके स्वामी के उपयोग के लिए इनको परस्पर जोड़ दिया जाता है । एक घर का ही उदाहरण लीजिए। इस (घर) का निर्माण इसकी खिड़की. द्वार, छत, दीवारों आदि के लिए नहीं होता । घर के इन अंगों को पारस्परिक उपादेयता के लिए बनाया नहीं जाता बल्कि इस (घर) के स्वामी के वास्ते ताकि वह इसमें निवास कर सके । इन अंगों में से कोई एक इस घर का स्वामी होने का दावा नहीं करता । मनुष्य में शरीर, मन, बुद्धि अादि अवयव पाये जाते हैं । इनके परस्पर मिल जाने पर तन, मन और बुद्धि क्रियमाण नहीं होते । निश्चय ही से इनका कोई स्वामी होगा। यह स्वामी वही वास्तविक तत्व है जो इस प्राचीर के भीतर सत्तारूढ़ रहता है।
शरीर का स्वामी आत्मा है जो अपनी इच्छा से इसमें प्रवेश करता है । शरीर के अंग अपने आप न इसमें प्रवेश करते हैं और न ही इससे सम्बन्धविच्छेद । शरीर की भित्तियों, प्रबल इच्छा होने पर भी, इसका त्याग करने में असमर्थ हैं क्योंकि ये समूचे शरीर का अंश हैं । इस तरह मन के बिना इन्द्रियाँ, बुद्धि के बिना मन और इन सबके सत्तारूढ़ स्वामी (आत्मा) के बिना बुद्धि अपने काम नहीं कर सकती।
यहाँ 'संघात' शब्द का यह अभिप्राय समझाया गया है ।
यदि 'आत्मा' ही वास्तविक एवं परम-तत्त्व है तो क्या इसके विविध अवयवों की कोई सत्ता है ? श्री गौड़पाद कहते हैं कि इस आत्म-तत्त्व की दृष्टि में इन अंग-प्रत्यंगों की कोई सत्ता नहीं है। तब हम शरीर, मन और
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