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( १७४ )
सब शरीरों में स्थित प्रात्मा, जो जन्म, मृत्यु और आने जाने (पुनर्जन्म) की क्रियाओं को करता प्रतीत होता है, घटाकाश से किसी प्रकार भन्न नहीं ।
मीमांसा दर्शन में इस बात को माना जाता है कि पुण्य कर्म करने से 'जीव' स्वर्ग में जाकर वहाँ के ऐश्वर्य का भोग करता है । निम्न-वर्ग के पाशविक जीवन वाला व्यक्ति निम्न-स्तर के अनेक दुःख सहन करता है । यहाँ इस सिद्धान्त की समीक्षा करते हए कहा गया है कि अद्वैतवाद द्वारा पुनर्जन्म सिद्धान्त मान्य नहीं । श्री गौड़पाद के मतानुसार पनर्जन्म को मानते हुए 'वेदान्त-तत्त्व' को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं पड़ती क्योंकि एकमात्र आत्मा में विश्वास रहते हुए भी जन्म-मरण, वैभव-पराभव, उन्नति-अवनति आदि से सम्बन्धित विचार रखे जा सकते हैं ।
इस विचार को स्पष्ट करने के उद्देश्य से भगवान् (गौड़पाद) ने पूर्ववत् 'घटाकाश' का दृष्टान्त दिया है । घड़ा बनने पर 'घटाकाश' का निर्माण होता प्रतीत होता है और इसके टूट जाने पर 'इम' आकाश का भी नाश होता दिखायी देता है । 'घटाकाश' के प्रकट अथवा अदृश्य होने का 'व्यापक' आकाश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना । एक घड़ा चाहे उत्तरी ध्रुव में हो और दूसरा दक्षिणी ध्रव में इन दोनों का 'घटाकाश' से सम्बन्ध ज्यों का त्यों बना रहेगा। ऐसे ही अद्वैत प्रात्मा का न जन्म होता है और न ही अन्त; भला सर्व व्यापक किस तरह गतिमान होगा ? आत्मा में जीवत्व की भावना कर लेने पर हमें यह किसी कालान्तर में जन्म लेता प्रतीत होता है और दूसरे कालान्तर में हम इसे मरते देखते हैं । यह भावना केवल मन एवं बुद्धि को ससीमता के कारण उत्पन्न होती है।
चाहे किसी का जन्म हो, किसी की मत्य हो और कोई स्वर्ग अथवा नरक में जाय, इस सनातन एवं अजात अात्मा का कहीं गमनागमन नहीं होता। 'पुत्र-जन्म' तथा 'मेरी-मृत्यु' से सम्बन्धित मेरे विचारों को 'आत्मा' ही प्रकाशमान करती है । हममें उठने वाली विविध तरंगें हमारे मानसिक क्षेत्र तक ही सीमित रहती हैं परन्तु हमें ऐसा मालम देता है कि उनका 'आत्मा' में उत्थान-पतन हो रहा । इस सम्बन्ध में हम यह कह सकते हैं कि इन मनोवेगों का साक्षी प्रात्मा है।
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