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( १७३ )
ठीक ऐसे ही जिस व्यक्ति को यह विवेक नहीं कि प्रात्मा में मनुष्य के मानसिक अनुभव नहीं पाये जाते वह अज्ञान में श्रात्मा पर मन के गुणों का आरोप कर बैठता है जिससे उसे आत्मा के सुखी अथवा दुःखी होने का आभास होने लगता है ।
आत्मा तो वह विशुद्ध चेतन स्वरूप है जिसके प्रकाश में हमें सुख और दुख की अनुभूति होती रहती है। सूर्य द्वारा पर्वत, नदी, वन, नगर आदि प्रकाशमान होते हैं किन्तु सूर्य्य में ये सब विद्यमान नहीं होते । प्रकाश-दाता तथा प्रकाशमान् दो भिन्न वस्तुएँ हैं
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आत्मा हमारे मन के विविध रूपों को आलोकित तथा गतिमान करता है किन्तु इस (आत्मा) में ये वृत्तियाँ स्थित नहीं हैं । इस पर भी शरीर, मन और बुद्धि के बन्धन में फँस कर हम द्रष्टा, कर्ता, उपभोक्ता प्रादि का मिथ्याभिमान ( जीव-भावना ) कर बैठते हैं। जब हम स्व-रचित एवं कल्पित क्षेत्र से अपने आप को देखने लगते हैं तो हमें मूर्खतावश ग्रात्मा में उन्हीं गुणों की भ्रान्ति हो जाती है जो हमारे इस उपकरण ( मन ) में प्रतिबिम्बित होते हैं ।
खिड़की के रंग-बिरंगे शीशों में से बाहिर झाँकने पर बालकों को रंगबिरंगे दृश्य दिखायी देते हैं क्योंकि इनके देखने का उपकरण स्वयमेव रंगीन है जिससे उन अबोध बालकों को सभी दृष्ट पदार्थों के रंग-बिरंगे होने का मिथ्याभास होता है।
आत्मा के विशुद्ध एवं अद्वैत होने पर यदि कोई शंका की जा सकती है तो उसका समाधान इस दृष्टांत से किया जा सकता है । प्रालोचक कह सकते हैं कि आत्मा किसी तरह विशुद्ध तथा अद्वैत नहीं हो सकता क्योंकि हमें अपने चारों ओर मलिनता और अनेकता ही दिखायी देती है । इस शंका को निवारण करने के उद्देश्य से श्री गौड़पाद हमें बताते हैं कि इस दिशा में हमें कहाँ भ्रान्ति होती है और इस मलिनता तथा विविधता में हमें अद्वैत-विशुद्ध-शक्ति की किस तरह अनुभूति हो सकती है । बेसमझ बालकों को मलिन दिखायी देने वाला प्रकाश एक बुद्धिमान् पुरुष को 'स्वच्छ' दिखायी देता है ।
मरणे सम्भवे चैव गत्यागमनयोरपि 1 स्थितौ सर्वशरीरेषु श्राकाशेनाविलक्षणः ॥ ॥
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