________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १७० )
आकाश की एकमात्र मत्ता रहती है । यही तथ्य विविध जीवों में घटित होता रहता है ।
यहाँ काईएक व्यक्ति श्री गौड़पाद के तर्क में दोष ढूँढता है । वह कहता है कि विविध अनुभव प्राप्त होने के कारण हर शरीर में अलग आत्मा का निवास होना नाहिए । जब हर व्यक्ति के अनुभव दूसरों के समान नहीं होते तो यह वास्तविक तत्त्व एक समान कैसे हो सकता है ?
इस मंत्र में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है । जब हम अपने मन के उपकरण में सनातन-तत्त्व को देखते हैं तब विविध नाम-रूप वाला पदार्थ-जगत् हमारे दृष्टिगोचर होता है । वैसे यह विशुद्ध चेतन शक्ति सदा एक रूप रहती है । स्थूल संसार का द्रष्टा 'ग्रहंकार' (Ego ) है । इस ममत्र की भ्रान्ति इस कारण होती है कि हम सत्य सनातन को देखने के लिए मन के उपकरण को प्रयोग में लाते हैं ।
एक हो मिट्टी से बने हुए विविध बर्तन नाम, रूप और क्रिया में भिन्नता रखते हैं; इस पर भी हम यह जानते हैं कि ये मिट्टी के सिवाए और कुछ नहीं । चाहे वे किसी नाम से पुकारे जाएँ, किसी प्रकार को धारण किए हों, और उनको किसी ढंग से उपयोग में लाया जा रहा हो - फिर भी उनका अस्तित्व अपने वास्तविक स्वरूप मिट्टी के बिना एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता । वे बर्तन मिट्टी से बनते, मिट्टी में स्थित रहते और अन्त में टूट कर उसी में लीन हो जाते हैं ।
मिट्टी के इन बर्तनों के नाम तथा क्रिया के कारण हम इन्हें विविध आकार वाला देखते हैं; किन्तु जहाँ तक आकाश का सम्बन्ध है वह इन सब में समान रूप से व्याप्त है और उसे परिमित नहीं किया जा सकता । थूकदान और गंगाजल वाले कलश में वही आकाश तत्व व्याप्त है । अतः आकाश पूर्णतः अभिन्न है ।
विविध जीवों का मूल तत्त्व एक ही सनातन एवं अद्वैत शक्ति है । इन जीवों के नाम, अनुभव तथा क्षेत्र में विभिन्नता दिखा देने पर भी इनको क्रियमाण करने वाली परम सत्ता एक ही है । देव प्रवृत्ति तथा पाशविक वासनाएँ रखने वाले व्यक्तियों में यह जीवन-शक्ति समान भाव से विद्यमान रहती है ।
For Private and Personal Use Only