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प्रज्ञान का शिकार होता हूँ कि जागने, स्वप्न देखने और गहरी निद्रा लेने वाला सनातन-तत्त्व (में) ही सुख-दर्शन का अनुभव करता है । इन मिथ्या भौतिक आवरणों से अलग रह कर अपने वास्तविक स्वरूप को, जो इन सब कोशों का प्राधार है, जानना ही वेदान्त का मार्ग है । इसको आत्मानुभव कहा जाता है।
संसार को कृत्रिम भाषा में हम अपनी सुविधानों के लिए नाम-रूप का प्रयोग करते हुए कहने लगते हैं कि सभी दृष्ट-पदार्थों की सृष्टि परम-तत्त्व से हुई । यह उक्ति इतनो यथार्थता लिये रहती है जितनी इस भाव में है कि थूकदान के आकाश का निर्माण व्यापक आकाश से हुआ।
घटादिषु प्रलीनेषु घटाकाशादयो यथा ।
प्राकाशे संप्रलीयन्ते तद्वज्जीत्वा इहाऽऽत्मनि ॥४॥
जिस प्रकार घड़ा टूट जान पर 'घटाकाश' 'व्यापक' आकाश में विलान हो जाता है वैसे ही ये जीव अात्मा म लीन हो जाते हैं ।
यदि हम एक बार इस भ्रान्ति में पड़ कर अपना संपर्क अवास्तविक वस्तुओं से मान बैठे हैं तो क्या हम कभी इस धारणा का त्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप को जान सकेगे ? इस प्रश्न का उत्तर देते हए यहाँ श्री गौडपाद ने उसी उदाहरण पर अधिक प्रकाश डाला है जिसका उन्होंने पिछले मंत्र में उल्लेख किया था।
जब अलग करने वाली दीवारें अथवा सीमाएँ टूट जाती हैं तो उनसे स्थापित किया हमारा संपर्क भी समाप्त हो जाता है । घड़े के टूटते ही घटाकाश स्वतः व्यापक प्राकाश में लीन हो जाता है। ऐसे ही मुझे पृथकता की भ्रान्ति में डालने वाले उपकरण जब नष्ट हो जाते हैं तब इस अहंभावना का भी अन्त हो जाता है । मन तथा बुद्धि का अतिक्रमण करने पर जीव-भावना, जो इन दोनों के मिथ्याभास के कारण उत्पन्न होती है, अपने आप लप्त हो जायेगी और साथ ही इसके सब मिथ्या सम्बन्ध तथा भ्रम दूर हो जायेंगे।
___ जीवात्मा की पथकता का अन्त होते ही परमात्मा से साक्षात्कार हो जायेगा । मन और बुद्धि को लाँघ लेने पर हम ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जहाँ असीम शुद्ध-चेतना का अनुभव होने लगता है । 'अहंकार' का अन्त होने
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