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( १५६ )
यहाँ यह पूछा जा सकता है कि इस ज्ञानी की दष्टि में भोक्तव्य पदार्थ कौन हैं और उन को भोगने वाला कर्ता) कौन है जिसे परमानन्द का अनुभव होता रहता है ? यहाँ इस शंका का समाधान किया जाता है । यह सिद्ध पुरुष आनन्द-स्वरूप होने के कारण इस परम-तत्त्व से ही आत्म-तुष्टि प्राप्त करता रहता है । यहाँ हमें यह जान लेना चाहिए कि इस में भोक्ता तथा भोक्तव्य का कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है । यह अानन्द किसी पदार्थ की प्राप्ति से अनुभव में नहीं आता। 'भोक्ता' और 'भोजन' दो पथक सत्ताएँ नहीं। वह व्यक्ति तो प्रात्मा में रमण करता हुग्रा अपने-ग्राप में खोया रहता है क्योंकि उस की 'आत्मा' ही 'पानन्द' से परिपूर्ण रहती है। प्रात्मा में ही लीन हो जाना महानतम प्रात्म-तुष्टि है क्योंकि यह 'पानन्द-स्वरूप' है।
इस परमोच्च कोटि के व्यक्ति को जिस की गत पाँच मंत्रों में व्याख्या की गई है, उस परमावस्था से नीचे गिरने का रत्ती भर भय नहीं होता क्योंकि यह तो प्रात्मा का स्वरूप धारण कर चुका होता है । वह सर्व-व्यापक परमात्मतत्त्व से कभी पृथक नहीं होता; अतः उस में मिथ्याभिमान का लेशमात्र नहीं रह पाता । वह उस सर्वोच्च स्थिति से कभी च्युत नहीं होता। यह उस के क्रमिक विकास की पराकाष्ठा है और आत्म-पूर्णता प्राप्त कर लेने पर वह स्वयं सर्व-व्यापक 'परमात्म-तत्त्व' का स्वरूप हो जाता है ।
__ इस मंत्र के साथ श्री गौड़पाद की 'कारिका' का दूसरा अध्याय समाप्त होता है।
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