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( १५७ ) इस दिशा में उस ने सफलता प्राप्त कर ली है। धर्म के सभी यज्ञानुष्ठान मन को स्थिरता देने के साधनमात्र होते हैं। जिस सौभाग्यवान व्यक्ति ने मन को जीतने के बाद आत्म-तत्त्व को अनुभव कर लिया है भला उसे कर्म-बन्धन में फंसने की क्या आवश्यकता होगी? वेदान्त का निर्देश है कि ऐसे सिद्धपुरुष के लिए कर्म-लिप्त होना असंभव है।
इस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि यह व्यक्ति अपने शरीर के प्रति क्या भावना रखेगा; अर्थात् वह आहार, आवरण (वस्त्र) तथा प्रावास से सम्बन्धित आवश्यकताओं की पत्ति किस प्रकार करेगा । जिस देव-पुरुष ने जीवन के सभी धर्मों का त्याग कर दिया है वह अपने लिए किसी वस्तु की याचना नहीं कर सकता क्योंकि उस की कोई निजी सम्पत्ति नहीं और न ही वह राष्ट्र के लिए किसी प्रकार का व्यक्तिगत महत्त्व रखता है। इस व्यक्ति को देश की जन-गणना में कोई विशेषता नहीं दी जाती और यदि उस का नाम दर्ज भी हो तो उसे 'अशिक्षित' अथवा (समाज के लिए) 'अवांच्छित' दिखाया जाता है।
यहाँ शास्त्र ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि यह परिपूर्ण व्यक्ति अपने पार्थिव शरीर को केवल 'आत्मा' में अधिष्ठित रखे । उस का 'चल' शरीर 'आत्मा' के 'अचल' निकेतन में स्थित रहना चाहिए । यह मनुष्य अपने शरीर, मन और बुद्धि को 'आत्मा' के अर्पण कर के इस की छत्रच्छाया में विचरता रहता है । यदि आत्मा ही उस का निकेतन है तो भला उसे प्राहार
और वेष-भूषा से क्या विशेष काम रहेगा ? इन दोनों के लिए उसे अनायास प्राप्त होने वाली मात्रा पर निर्वाह करना चाहिए क्योंकि उसे इन की कोई आवश्यकता नहीं रहती । यहाँ इस पुरुष के लिए एक गौरवपूर्ण शब्द का प्रयोग किया गया है । प्राध्यात्मिकता की प्राप्ति में अभ्यस्त होने वाले मनुष्य को 'यति' कहा जाता है । इस लिए यहाँ बताया गया है कि धर्म-मार्ग पर प्रारूढ़ रहने वाले व्यक्ति को भी अपनी इच्छा-पूत्ति के लिए अनायास (बिना कहे अथवा माँगे) मिले पदार्थों पर निर्वाह करना चाहिये । उसे लालसा एवं कामना से दूर रहना चाहिए ।
तत्त्वमाध्यात्मिकं दृष्ट्वा तत्त्वं दृष्ट्वा तु बाह्यतः । तत्त्वीभूतस्तदारामः तत्त्वादप्रयुच्यतो भवेत ॥३८॥
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