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( १५८ ) सत्य-तत्त्व को शरीर के भीतर जानने तथा इसी सत्य का बाह्य संसार में अनुभव करने पर वह (सिद्ध पुरुष) स्वयं तत्त्वरूप हो जाता है । तदनन्तर वह 'सत्य-निष्ठ' रह कर इस तत्त्व में ही रमण करता है।
प्रस्तुत मंत्र में गत मंत्र के भाव पर विचार किया जा रहा है और साथ ही इस आत्मानुभूति की मात्रा के अन्तिम भाग की ओर संकेत किया जा रहा है । यहाँ हमें उस मूक प्रात्मानन्द के प्रादि-स्रोत की जानकारी दी जाती है जिस से यह परिपूर्ण सिद्ध पुरुष प्रोत-प्रोत रहता है । इम सनातन-तत्त्व को बाह्य संसार तथा आन्तरिक जगत् में अनुभव कर लेने पर वह 'तत्त्वमय' हो जाता है । भीतर और बाहिर की भावना वस्तुतः हमारे मन से उठती रहती है । जब हम इस भेद को लाँघ लेते हैं तब कहा जाता है कि हम ने मन को जीत लिया है । तब हमारे लिए सर्वत्र शुद्ध चेतन-स्वरूप ही व्याप्त रहता है ।
____ संक्षेप में आत्मानुभूति होने पर पदार्थमय जगत मिथ्या प्रतीत होने लगता है और बाहर व भीतर 'आत्मा' की सत्ता का ही अनुभव होता रहता है । इस प्रसंग में यह जानना परमावश्यक है कि आत्मानुभूति से केवल अपने भीतर 'आत्मा' का अनुभव करना नहीं है । जो महात्मा समस्त संसार को बुरा मानता हुअा अात्म-स्वरूप को जान लेने का दावा करता है उस की यह उक्ति विश्वसनीय नहीं; वह तो प्रात्म-प्रवंचना का शिकार रहता है ।।
__ अतः यहाँ शास्त्र ने साफ तौर पर कहा है कि आत्मानुभूति उस समय चरितार्थ होती है जब हम देव-ज्योति को अनुभव करने के साथ सर्वत्र व्याप्त रहने वाले परम-तत्त्व को भी अपने भीतर पहचान लेते हैं।
वह 'पुरुषोत्तम' संसार की विषय-वासना से, जिसे वह स्वप्नमय समझता है, किसी प्रकार का मनोरंजन प्राप्त नहीं करता । आत्मा में रमण करते हुए भी वह इसे प्रत्यक्ष रूप से अनभव नहीं कर पाता क्योंकि इस की अनुभति के लिए किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती । जब उस ने मन एवं बुद्धि को लाँघ लिया तब न तो उस के लिए किसी दृष्ट-पदार्थ का महत्त्व रहता है और न ही वह ज्ञानी पदार्थों का द्रष्टा कहा जा सकता है । इस पर भी शास्त्र उस अतीत आनन्द का गुणगान करते नहीं अघाते जो इस ज्ञानी के जीवन का एकमात्र सार है।
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