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( १५६ )
सम्बन्धी अथवा अन्य अनुष्ठानों से परे रहना चाहिए । उसे अपने शरीर का केवलमात्र आधार 'आत्मा' को मानना चाहिए और निज शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अनायास पाने वाले अवसरों पर निर्भर रहना चाहिए।
जिस विरले मनुष्य ने प्रात्मानुभूति के ध्येय को प्राप्त कर लिया है उसे पूर्णता के सर्वोच्च स्तर पर रहते हए लोक सेवा में लगे रहना तथा निज अनुभव स्थिति में स्थिर रहना चाहिए । जिस समाज के व्यक्ति इस सिद्ध पुरुष के प्रति उदासीनता का बर्ताव रखें क्या उनके साथ यह सिद्ध रह सकता है ? हिन्दुनों के दर्शन-साहित्य के इने-गिने अनपम मन्त्रों में से एक मन्त्र की यहाँ व्याख्या की जा रही है । इस में कहा गया है कि परिपूर्णावस्था को प्राप्त करने वाले इस व्यक्ति के लिए उचित है कि वह अनुभूतिवाद उत्कृष्ट वैराग्य में रहता हुमा इस नश्वर शरीर का त्याग करे । प्रायः सभी उपनिषदों में इस भाव की विविध रूप से पुनरावृत्ति की गयी है ।।
किसी भी युग में समाज का प्रेम प्राप्त करने का एक ही उपाय है और वह है स्तुति तथा मान-प्रतिष्ठा की लालसा न रखना । जब किसी व्यक्ति ने इनके प्रति उदासीनता का भाव अपना लिया तो वह दुगने साहस से सत्य-मार्ग से परिभ्रष्ट समाज की सेवा कर सकता है । एक राजनीतिज्ञ, जिसने आगामी चुनाव लड़ना है, समाज का किसी रूप में विरोध करने का साहस नहीं कर सकता चाहे उसकी अन्तरात्मा मतदाताओं की राय को कितना ही अनुचित समझ रही हो । इस कोटि के व्यक्तियों को लोकमत के अनुकूल चलकर अपने युग का अनुगामी बन कर रहना पड़ता है । इसके विपरीत यह परिपूर्ण देब-पुरुष सदा स्वतंत्रता का रसास्वादन करता रहता है । सर्व-साधारण को परिस्थितियों का यथार्थ मूल्यांकन करने की शिक्षा देते हुए वह हँसते-हँसते आत्म-बलिदान कर देता है । संसार के निष्ठुर मनुष्य उसके प्राण तो ले लेते हैं किन्तु बाद में उसकी महानता को स्वीकार करके पश्चात्ताप की अग्नि में जलते रहते है।
यह सिद्ध पुरुष किसी 'नित्य' अथवा 'नैमित्तिक' अनुष्ठान से बँधा नहीं रहता क्योंकि इस के कर्म की इतिश्री हो चुकी होती है । एम. ए. श्रेणी में पढ़ने वाला छात्र प्रतिदिन 'पहाड़े' याद करने का कष्ट नहीं करता क्योंकि
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